मकान और घर
बना हो जो ईंट और सीमेंट से,
वो एक घर नहीं कहलाता है।
खिलखिलाहट न हो,जहाँ हँसने की,
तन्हाई का अहसास दिलाता है।
दीवारें हो मजबूत चाहें कितनी भी,
फिर भी निर्जीव सा नजर आता है।
कितना ही बड़ा हो वो घर मगर,
एक मकान बनकर रह जाता है।
फिर भी न जाने क्यों इंसान,
उस मकान पर इतना इतराता है।
मेहनत और जज्बा हो अगर,
मकान बनाया जा सकता है।
दुर्बल हो बुनियाद प्यार की,
परिवार बंट जाया करता हैं।
एक मकान को पाने की खातिर,
अपना ही अपनों को दगा दे जाता है।
लाँघ कर मर्यादाएँ हर रिश्ते की,
षडयंत्र के सारे दाव पेंच आजमाता है।
बेजान चीज को पाने की खातिर,
निकृष्टता की हर एक हद दिखाता है।
और एक मकान पाने के लालच में,
घर को ही दफ़न कर जाता है।।
By:Dr Swati Gupta