मइनसे के पीरा [छत्तीसगढ़ी हाइकु संग्रह की समीक्षा]
छत्तीसगढ़ी हाइकु संग्रह : मइनसे के पीरा : प्रदीप कुमार दाश “दीपक”
छत्तीसगढ़ी का प्रथम हाइकु संग्रह : प्रकाशक – छ. लेखक संघ सरिया
MAINSE KE PEERA पुस्तक मूल्य : 25 /– संस्करण वर्ष : 2000
मइनसे के पीरा जन्य हाइकु : समीक्षक – प्रो. आदित्य प्रताप सिंह
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हाइकु का जापानी अर्थ है – नट् भंगिमा । प्रायः वह 05-07-05 के ओंजी (Onji) क्रम में लिखा जाता है । किन्तु वहाँ इसके अपवाद भी सह्य हैं । जापानी में फ्री हाइकु भी खूब लिखे गये हैं, पर नए मुल्ले सड़ी प्याज खाते हैं । तथाकथित कट्टर हिंदी हाइकुवादी 05-07-05 के वर्णक्रम के अलकायदा के कैदी हैं । “दीपक” के यहाँ ऐसा सुन्नीपन नहीं है । उन्होंने 05-07-05, 05-08-05, 05-09-05 वर्णक्रम में हाइकु/हायकू लिखे हैं । यह नयी दिशा और प्रस्थान का सूचक है । कवि ने 05-07-05 के लिए भावों की हत्या नहीं की है । ऐसा करने से हिंदी हाइकु “हाइकु” न रह कर हाइकु की काल कोठरी बन जाते हैं – कविता की कत्लगाह । मैंने 1966 में छत्तीसगढ़ी और गोंडी बघेली के मिश्रित रूप में 25 हायकू लिखे थे । किंतु दीपक ने ठेठ छत्तीसगढ़ी में , यह संकलन “मइनसे के पीरा” नाम से रचा है । जहाँ तक मुझे विदित है, यह ठेठ छत्तीसगढ़ी का प्रथम हाइकु संकलन है । यह स्वागत योग्य है ।
“पीरा” दीपक के संकलन का मेरु है । पीरा से ही मानव प्राणियों का सुमेरु है । हाइकु संकीर्ण सनकी क्षणिका मात्र नहीं , वह क्षण के सांस में विकास का , मानव का भूत वर्तमान और भविष्य का त्रिक है । त्रिपुण्ड । यथा —-
हँसा बंदर
हुआ आदमी रोया
विभू विकसा ।
यहाँ हँसा – रोया विकसा तीन क्रियाएँ हैं । मनुष्य और मनुष्यता का विकास (01) बंदर, (02) आदमी, (03) विभू में यह हाइकु का वामन समेटता है । आदमी रोया तब विभू (देव) हुआ ।
दीपक ने हाइकु लिखे हैं और सिनरियू (व्यंग्य) भी उनके कलन के केन्द्र में “पीरा” है । पीरा से ही आदमी जीवित हीरा होता है । निर्जीव हीरा से महत्तर ।
दीपक के हाइकु पढ़ने, सुनने और गुनने से लगता है कि उनमें उत्तम हायकूकार की प्रतिभा प्रच्छन्न है । हिंदी में ढेरों हाइकु संकलन हैं, पर अधिकांश हाइकु/हायकू के लिए कच्चे माल हैं, खाद हैं, वे हायकू या हाइकु नहीं । अनेक नामों से हाइकु हजारों लोगों द्वारा लिखे जा रहे हैं, पर लेवलों से क्या होता है ? हाइकु तभी सार्थक होते हैं, होंगे, जब वे दूज के चाँद में पूनों की झलक पैदा करें – मोती में समुद्र की छवि । हायकू का देवता साधारण के असाधारणत्व में है । “अरुंधती” ने इसे God of small things कहा है ।
दीपक जी ने मजे में हाइकु कहे और लिखे हैं —
(01) बापू के फोटू
आफिस मा बुहाथे –
ओकर आँसू ।
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(02) गमकत हे
संगी के मया अऊ
भूईं के माटी ।
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(03) विकट रात
एक दीया बताथे
ओला औकात ।
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विकट रात – तिमिर बिम्ब है और एक दीया उसका विरोधी आलोक बिम्ब है — जो रात को उसकी औकात बता देता है । संभवतः यह संकलन का सर्वश्रेष्ठ हायकु है : सफल और सार्थक भी । प्रायः हिंदी और गुजराती में हइकु, हायकू या हाइकु नाम से लिखे गये हैं पर उनमें विरोधी बिम्बों तीखी आँखों की भंगिमा या स्पंदों की कमी खलती है । दीपक छत्यीसगढ़ी का हायकू दीपक है । कहीं कहीं उनके मुक्तक-मुक्ता के तेवर देखते बनते हैं —-
देवता रीझे
मनखे का चीज ए,
पथरा सीझे ।
यहाँ “अरथ अमित, आखर थोरे” वाली बात है । यही तो हाइकु का मर्म है । “पथरा सीझे” क्या कहना है । बहुत खूब । यह हाइकु त्रिवाक्यांशी है —– द्विक्रिय भी । रीझे और सीझे दो क्रियाएं हैं । सीझे शब्द में कवि बहुत सी अर्थ गूंजें बरामद कर लाया है । वह यहाँ मानव की गरिमा और महिमा स्थापित करने में सफल है । वास्तव ऐसे (हाइकु/हायकू) लिख पाना यह सूचित करता है कि दीपक का भविष्य उज्ज्वल है । यह निविड़ निशा के लिए चुनौति है । रात की आँख में किरकिरी है और उसके कवि की आँखों में “मइनसे के पीरा” की किरकिरी ( A graind of sand in eye ) है — यह मौलिक पीरा ही उनकी प्रेरणा है । शक्ति है ।
दीपक जी ने एक वाक्य के दो वाक्यांशी और त्रिवाक्यांशी हाइकु भी लिखे हैं । त्रिवाक्यांशी हाइकु उत्तम होते हैं । दो वाक्यांशी मध्यम और एक वाक्यांशी अधम । उनके तीन क्रियाओं का ( त्रिवाक्यांशी हाइकु ) है । यथा ——
कहे मा कछू
अऊ जब देखबे
करे मा कछू ।
यहाँ कहे – देखबे और करे तीन क्रियाएँ – तीन – पदांश रचती हैं । कहीं – कहीं उनके हाइकुओं की सहज बक्रता मन मोह लेती है —-
दिल के बिल
निकरथे कविता
अरे मुसवा !
यह हाइकु अक्रिय और सक्रिय का निदर्शन है । साथ में सचित्र रुपकांश भी । दूसरा रुपकांश और लुप्तोपमा से माँ का सुप्त उत्प्रेक्षण ध्वनित और शिल्पित हुआ है ——
जाड़े मा ओस ( आँसू लुप्तोपमा )
प्रकृति महतारी ( रूपक )
बिखेर दिस । ( मानो )
दीपक कहीं-कहीं विभावना ( अलंकार ) द्वारा रौद्र ( क्रोध ) की भावना ध्वनित कर देते हैं — सानुभाव और सहाव । ऐसी चेष्टाएँ —– विभाव – भाव और अनुभाव को संकलित कर लाती हैं —-
अब्बड़ रोस
बिन गोड़ मा साँप
कूदय लेथे ।
ऐसे हायकु हिंदी में कम ही हैं । यहाँ अद्भूत ( भयांश ) और रौद्रांश के साथ भावना और विभावना की अकृत्रिम ( अलंकार ) ध्वनि है ।
कहीं – कहीं भावोष्णा और अनुभूत के चित्रांश “दीपक” के यहाँ प्रयुक्त हुए हैं ——-
देखत रह..
बुहा जाही ऊमर
ह. ह. नदिया… ।
ह ह ( अहह ) शब्द यहाँ दंशक है —- जिसे जापानी में “किरेजि” कहते हैं । तथाकथित हिन्दी हाइकु में जापानी हाइकु का साहित्य है । केवल उसका ट्रेडमार्क है । प्रसन्नता की बात है कि दीपक के यहाँ जापानी हाइकु के गुणों की कुछ झलकियाँ हैं । मर्म छवियाँ हैं । उनके ऐसे हाइकु / हायकू ही “गुदड़ी के लाल” हैं । हिन्दी हाइकु के कचरों के ढेर में ये दीप्त स्फुलिंग हैं । निष्कर्ष है कि हाइकु के नाम पर जो निशा स्तूप है उसमें दीपक सूर्य के सूचक हैं ।
□ प्रो. आदित्य प्रताप सिंह
रींवा ( म.प्र. )
PIN – 486001
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