मंज़िल
हाथ और पांव के छाले निशानी हैं मेहनत की उनकी
महामारी में मजदूरों की दूसरी दास्ताँ बयाँ कर रहे हैं
बसे हैं मजदूरों की आंखों में कई इमारतों के नक्शे
बेबसी में बेसहारा वो शहर में कोई आसरा ढूंढ रहे हैं
नासमझ हैं नहीं देगा राहत इमारतों का साया भी उन्हे
खाली जेबों को टटोलते हुए गुम हुआ साया ढूंढ रहे हैं
अनजान हैं यहां रहने वाले पसीने की गंध से मजदूर के
गुजरते हुए वहां से मजदूर आज भी महसूस कर रहे हैं
नहीं समझते थे कल तक देश में ही जमीनी सीमाएं वो
भूख और बीमारी की जंग में आज वे सब समझ रहे हैं
मंज़िल के लंबे होते सफ़र में ढूंढते हुए इंसानियत को
बावजूद पड़ते पांवों में छाले अपनी मंज़िल लौट रहे हैं.