मंदिर की घंटी
ना बजती मंदिर की घंटी,
ना अजान की आवाज़ है आती,
बच्चें चाहते पाठशाला की घंटी,
बस उसको भी नदारद ही पाते।
मंदिरों से उतार दी अब घंटियाँ,
पाठशाला की घंटी भी धूल सनी है जाती,
नौनिहालों की पढ़ाई नहीं रही अनिवार्य,
वैश्विक महामारी यही कहती जाती।
याद करो वह दिन पाठशाला के,
चुन्नू-मुन्नू संग पढ़ते संग हँसते,
जीवन में आगे बढ़ना उनका था मकसद,
घर पर अब ऑनलाइन क्लास लगाते।
बहुत हुआ अब जाओ महामारी,
पाठशाला को खुलने की है अब बारी,
चुन्नू- मुन्नू फिर से खेले संग-संग,
बच्चों की खिल जाए फुलवारी।
✍माधुरी शर्मा ‘मधुर’
अंबाला हरियाणा।