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15 Dec 2022 · 2 min read

मंथ रा कैकेई संवाद मुकुट प्रसंग

मंथरा कैकेई संवाद
******************
आपके चरणों की दासी ।
जिंदगी भर से अभिलाषी।।

साथ जो शादी में आई ।
आजतक सेवा अपनाई।।

सदा ही बढ़े आपका नाम।
आपके यश में आउँ काम।

रही हूँ साफ साफ यह देख।
खिची माथे पर चिंता रेख ।

कोइ भी कारण नहीं छिपायँ।
हुआ क्या दासी को बतलायँ।

सभा में हुई घोषणा आज।
राम का तिलक करें महराज।

हमारे लिए खुशी की बात।
देखकर पुलकित होंगे गात।

राम से तेरा मेरा नेह ।
नहीं है इसमें कुछ संदेह।

तिलक में मुकुट लगेगा खास।
नहीं है जो राजा के पास।

उसे मैं रखती रही सँभाल।
मांगते समय समय भूपाल।

हुई मैं जब तारा पर क्रुद्ध।
हुआ बाली से नृप का युद्ध।

युद्ध में लगी शर्त अनुसार।
प्रिया दे जिसकी होगी हार।

नहीं रानी देना मंजूर।
मुकुट तो देना पड़े जरूर।

पराजय का फल चखना पड़ा।
मुकुट उसके ढिग रखना पड़ा।

कहा था बेटा आएगा।
मुकुट वापस ले जाएगा।

अभी जब होय तिलक दस्तूर।
गुरूजी मांगे मुकुट जरूर।

कहाँ से दूँगी सिर का ताज।
यही चिंता है मन में आज ।

किसी को पता न कानोकान।
हमारा कहाँ खास सामान।

पता चलने पर हो बदनाम ।
मुकुट बिन कहाँ तिलक का काम।

बचाने अवधपुरी की शान ।
राखने महराजा का मान।

पालकर रिश्ते की मर्याद ।
दिलाऊँ ना उस दिन की याद।

हार को कभी सकी ना भूल।
पेट में उठे हार का शूल ।

हार का बिधा वक्ष में वाण ।
अभी तक क्यों अटके हैं प्राण।

राम को बता दिया इतिहास।
कहा अब जाना है वनवास।।

आपकी होवे जय जयकार।
आपके सुन्दर विमल विचार।

अवध की लौटाने को शाख ।
पता है हो जाओगी राख ।

हजारों बिच्छू मारे डंक ।
लगेगा माथे बड़ा कलंक।।

सोच है भला बुरा परिणाम।
अगर वनवास जाएगा राम।

दिया है तुम्हें हमेशा साथ।
रचाई मेंहदी रुचकर हाथ ।।
ब्याह में आई तुम्हारे संग ।
किये है सभी तरह रस रंग।

रही दासी पर सखी समान।
सभी ने दिया मात सा मान ।।

अकेली बना योजना खिन्न ।
मंथरा कभी न तुमसे भिन्न।।

अगर करती हो मुझसे प्यार।
जरा भी है मेरा अधिकार।।

अवध के हित में हो बदनाम।
अकेली नहीं करो यह काम।।

तुम्हारा जब है पावन ध्येय।
मिले अपयश का मुझको श्रेय।

कुटिल कुबडी कुविचारी नीच।
दिया है सुधा कलश विष सींच।
लोग सब मुझे लगायें दोष ।
तभी मुझको होगा संतोष।।

कहा मैंने तुमको बहकाय।
राम को दीन्हा वन भिजवाय।

पकड़ कर वरदानों की टेक।
भरत का मांगा है अभिषेक।

कृपा की दासी पर हो छांव।
सखी पड़ रही तुम्हारे पांव।।

तुम्हारे स्वाभिमान की आग।
मुझे भी दो अपयश में भाग।

सुनी दासी की यह बानी ।
प्रेम की धार बही रानी ।

मंथरा गले लगाई है ।
आँसुओं से भर आई है ।

जानकर को अपयश ओढ़े।
फूल तज को खाये कोड़े।

सत्य का साथ निभाऊँगी।
अवध की शान बनाऊंगी ।।

मंथरा सखी नहीं दासी।
सदा शुभ सोच भरी खासी।

धन्य है धन्य धन्य जीवन।
समर्पित कर डाला तन मन।

प्यार के लिए हुई बदनाम।
मंथरा मेरा तुझे प्रणाम।।

गुरू सक्सेना
नरसिंहपुर मध्यप्रदेश
21/11/22

Language: Hindi
86 Views
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