मंजिल
मुसाफिर बन के देखो,कितनी हसीन है मंजिल।
पथरीली से राह में ,मुसीबतों के धूप में,
थकान के बाद भी ,चलता है मुसाफिर ,
गिरता है फिर सम्हलता है मुसाफिर,
एक चाहत उसे चलने को मजबूर करती है,
धूप भी अब उसको छाँव सी लगती है,
उसकी चाहत का अहसास है मंजिल,
अजीब सी खुशी की दास्तान है मंजिल।
रूह जिसको पाना चाहे,कदम जहां जाना चाहे।
जिसके लिए हम हमेशा,बेचैन रहा करते है।
हर खयाल में उसको,ही महसूस किया करते है।
उस मुकम्मल मुकाम का नाम है मंजिल।
अजीब सी खुशी की दास्तान है मंजिल
मुसाफिर बन के देखो,कितनी हसीन है मंजिल।
मुसाफिर की सीख,त्याग और निष्ठा है मंजिल
हर कसौटी पर आपको परखती है मंजिल,
पास आकर भी दूर हो जाती है मंजिल,
कभी तिलस्म भी करती है मंजिल।
निराशा के घनघोर अंधेरे में ,
आशा का एक ‘प्रकाश’ है मंजिल।
कुछ हसीन मंजर का सफर है मंजिल,
अजीब सी खुशी की दास्तान है मंजिल।
मुसाफिर बन के देखो कितनी हसीन है मंजिल।
राहुल प्रकाश पाठक “प्रकाश”