मंजिल वही पाता है
कुकड़-कूँ चीखकर के जब कहीं मुर्गा मचलता है
तभी चादर हटाकर रात की सूरज निकलता है
छुपाई होगी कोई मिल्कियत उस खाली कमरे में
तभी तो हर पहर दरवाजे का ताला बदलता है
मेरे मौला तू भर दे जोश मुझमे ठीक वैसा ही
कि जैसे आसमाँ की चाह में बच्चा उछलता है
वफ़ा की आरज़ू मजबूती की ख्वाहिश लिए मन में
अँधेरी रात में विश्वास आँगन में टहलता है
ऐ ठेकेदार मजहब के ये कैसा तेल लाए हो
अँधेरा मिट नहीं पाया दिया दिन-रात जलता है
चला जो राह में ठोकर उसी को मिलती है ‘संजय’
मगर मंजिल वही पाता है जो गिरकर सम्भलता है