मंजर
मंजर ही ऐसा लगता है
सबकुछ जर्ज़र सा लगता है
किसी को कुछ भी कहना
उसे खंजर सा – लगता है l
क्या अमन की बात करें ?
क्या चमन की बात करें ?
नींद चैन की आती नहीं
जो हो रहा, बेमानी – सा लगता है l
क्या दिवाली मनाएं हम?
क्या होली मनाएं हम?
क्या ईद यहाँ मनाएँ हम ?
रंग भी खून – सा लगता है l
हम गीता का गुण – गान करें
हम रामायण का पाठ करें
हम गायत्री मन्त्र को दुहराएं
सब महा -मृत्युंजय मंत्र -सा लगता है l
कहीं चीर – हरण, कहीं शील -हरण
कहीं अपहरण, कहीं मुद्रा – हरण
कहीं ईमान, कहीं धर्मान्तरण
बिना दिल का मानव – सा लगता है
कहीं भूकंप, कहीं सुनामी
कहीं बादल फटता है
कहीं अकाल, कहीं सूखा
खड़ा आदमी भूखा -सा लगता है l
क्या बोया क्या काटा हमने
क्या खोया, क्या पाया हमने
सबकुछ लुटाकर न रोया हमने
आँखों का पानी सूखा- सा लगता है l
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@रचना – घनश्याम पोद्दार
मुंगेर