मँझली बेटी
मँझली बेटी
बंजारों की दुनिया अद्भुत होती है । न भविष्य की चिंता न अतीत का दुख होता है , उन्हें । बस ,वर्तमान में सुखी संसार गाता –बजाता , गुन गुनाता अपना जीवन खुशी –खुशी बिताया करता है । उनके आने से वीरानों में भी जिंदगी आबाद हो जाती है । जंगल में मंगल मनाने का अनूठा उदाहरण ये सब प्रस्तुत करते हैं ।उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित शंकर गढ़ एक पथरीला ,रेतीला गाँव , जहां जेठ की दुपहरी में बहती लू के साथ –साथ रेत के बवंडर उठा करते हैं ।जब तापमान अधिकतम होता है , तब पसीने से चिपचिपाते शरीर को राहत देने के लिए न वृक्षों की छांव होती है ,न विद्धुत का प्रवाह , जल के अभाव में स्नान करना भी असंभव हो जाता है । इन्ही रेतीले इलाके में ये जन जातियाँ अपना बसेरा रोजी रोटी की तलाश में बनाती हैं । भरी दोपहरी हो या सांझ की शीतलता ,पत्थर तोड़ने का कार्य निरंतर चला करता है । ठेकेदारों के निर्देशानुसार ये बंजारे अपने नन्हें- मुन्हों को बांस की टोकरी में कपड़ा बिछा कर खेलने के लिए भगवान भरोसे छोड़ देती है , और हाड़ –तोड़ मेहनत कर ठेकेदारों की तिजोरी भरने का काम करते हैं ।
“जीवन कितना भी जीवट का हो ,परंतु उसकी एक परंपरा होनी चाहिए । एक नियम होना चाहिए । परंपरा और नियमों का निर्वाहन जीवन जीने की कला सिखाता है , जीवन में आनंद का संचार करता है । इसीलिए ,अपना देश छोड़ कर आए ये बंजारे अपनी परंपरा एवम जीवन शैली को निरंतर अपनाए रहते हैं ,एवम दूर –सुदूर तक अपनी वेषभूषा, नृत्य कला ,भाषा के लिए जाने जाते हैं ।
इन्ही बंजारो की एक टोली हमारे गाँव मे भी आई हुई थी । ठाकुर बहोरी सिंह एक ठेकेदार थे , उनका काम खान-खदानों का ठेका लेकर पत्थर –गिट्टी तोड़ वाना था । उनके चार लड़के व तीन लड़किया थीं । लड़के ग्रेजुएसन करके अपना –अपना व्यवसाय करते थे । उनकी तीनों बेटियो मे दो बेटियाँ विवाहित थी । परंतु उनमे से मँझली बेटी ने अविवाहित रह कर अपने समस्त परिवार को एक सूत्र में बांध रखा था । मँझली बेटी अत्यंत मेधावी थी । उसने एम .ए .सोसिओलोगी में एवम साइकॉलजी में कर लिया था । वह एक इंटर कॉलेज मे प्रवक्ता के पद पर कार्यरत थी । उसने पी एच डी की पढ़ाई भी पूरी कर ली थी । परंतु ,उसका जीवन शिक्षण कार्य करके भी अशांत था ।
शिक्षा के गिरते स्तर , शिक्षकों की गरिमा एवं नैतिक मूल्यों का पतन उसको इस दल –दल से निकलने के लिए बैचेन कर रहा था ।उसका मंतव्य प्रशासनिक सेवा में जाने का था । इसके लिए वह निरंतर प्रयास रत थी। उसने कई बार प्री एवं मेंस के लिए परीक्षायें पास की थी । परंतु हाय रे दुर्भाग्य !इंटर व्यू में कभी एक नंबर या दो नंबर से उसका चयन रुक जाता था । उसकी दृढ़ता व इच्छा शक्ति हर असफलता के बाद और प्रबल हो जाती थी ।
विधि का विधान कहता है कि ,यदि मजबूत महल बनाना है ,तो नींव गहरी होनी चाहिए । हमारी मँझली बेटी का यही दुर्भाग्य था !बचपन से बहोरी सिंह ने बड़े परिवार , गरीबी एवं तंगी से तंग आकर अपनी मँझली बेटी को परवरिश हेतु मौसा एवं मौसी कमला को सौप दिया था । मौसा निसंतान थे ,अत :उन्होने मँझली को खुशी –खुशी स्वीकार कर लिया । मँझली बेटी बचपन से अपने माता –पिता के प्यार व संरक्षण से वंचित हो गयी । तब मँझली केवल तीन साल की थी , उसे अपने पराए का भी ज्ञान नहीं था । मौसी के पास रहते ग्रामीण परिवेश मे उसका बचपन नष्ट हो गया । नन्हें मासूम हाथ हँसिया लेकर कभी घास काटते , कभी चारा , कभी बारिश में धान कि बोवाई करते कभी फसल पकने पर फसल काटने का काम भी करते । घरेलू कार्य करते , गीतों को गुन गुनाते कब वह समझदार हो गयी , उसे पता ही नहीं चला । जब उसे ध्यान आया बहुत देर हो चुकी थी । उसकी शैक्षिक योग्यता लगभग शून्य थी । वह हाइ स्कूल में फेल हो गयी थी । उसका भविष्य अंधकार मय हो गया था । उसी बरस मँझली बेटी कि माँ चल बसी थी उसे कैंसर था । कैंसर लाइलाज रोग नहीं है , परंतु ,धन के अभाव , सँसाधनो कि कमी कि बजह से उसका समुचित उपचार नहीं हो पाया था । माँ के स्वर्गवासी होते ही कमला मौसी ने मँझली को अपने पैतृक घर वापस भेज दिया ।
“वे बच्चे अत्यंत भाग्यशाली होते हैं ,जिन्हे अपने माता –पिता का प्यार मिलता है । माँ के हाथ की रूखी –सूखी रोटी खाकर मन को जो सुकून मिलता है वह कहीं नहीं मिलता । माँ की ममता का स्नेह भरा हाथ सिर पर फेरते ही सारा क्लेश दूर हो जाता है । माँ अपने बच्चों की सबसे बड़ी सलाहकार एवं मित्र होती है । अपने मन की व्यथा उससे बढ़ कर कौन जान सकता है । मँझली बेटी के जीवन का यही पक्ष शून्य था । पिता केवल संबल एवं संरक्षण दे सकता है । मँझली बेटी को अपने पिता का संरक्षण तो मिला परंतु अपने जीवन का मार्ग दर्शन उसने स्वयं किया ।”
अपने घर के शिक्षित वातावरण में उसे, उपेक्षा एवं उपहास का सामना करना पड़ा । इसने उसके आत्मसम्मान को निरंतर आहत किया । मँझली ने ठान लिया कि वह पढ़ –लिख कर अपने पैरों पर अवश्य खड़ी होगी । उसने लगन से पढ़ना शुरू किया । स्वाध्याय ने उसकी मेधा को सशक्त बनाया । आज वह मँझली बेटी अपने परिवार की आदर्श बेटी है । अपने से बड़ी एवं छोटी बहन का विवाह उसके प्रयासो से ही संभव हुआ । अब वह 35 वर्ष की हो गयी थी । जीवन के इस मुकाम पर तमाम जिम्मेदारियाँ निभाने के बाद उसे एक जीवन साथी की आवश्यकता थी , जो उसके सुख –दुख का साथी बन सके ,एवं गंतव्य तक उसकी जीवन नैया का खेवनहार हो ।
समय के इस अंधकार को दूर के लिए ठाकुर बहोरी सिंह ने उसके जीवन साथी के तौर पर एक सुंदर शिक्षित मेधावी लड़का पसंद किया। जीवन के इस उत्तरार्ध में बहोरी सिंह को मँझली बेटी के प्रति अपने उत्तर दायित्व का अहसास हुआ ,और गत वर्ष शीत काल में उसने मँझली बेटी के हाथ पीले कर दिये । मँझली बेटी ने बहुत दिन के बाद सुख का चेहरा देखा था । उसकी दृढ़ इच्छा शक्ति व कुशाग्र बुद्धि के कारण उसका चयन प्रशासनिक सेवा में उप जिलाधिकारी के पद पर हो गया । आज उसके पास शासन , शक्ति शिक्षा एवं विवेक का अकूत भंडार है ।जिसके द्वारा वह भट्टे पर काम करने वाले बंजारों की बेटियो का जीवन ,शिक्षा की व्यवस्था से रोशन करती है , और अतीत को भूल कर वर्तमान की कठिनाइयों को सुलझाते अक्सर मिल जाती है ।
डा प्रवीण कुमार श्रीवास्तव,प्रेम
मौलिक रचना।