भ्राता – भ्राता
भ्राता की ग्रीवा कटतीं ,
भ्राता के कृपाणों से ,
भ्राता की जान मुरीदीं ,
भ्राता के नजरानों से।
आलय का गुप्तचर आलय ढ़ाये ,
रावण और विभीषण द्वय भ्राता
अधर्मी और धर्मी को दर्शाता है
विभीषण अधर्म का मेल छोड़ ,
धर्म का मेल निर्माया था।
तीनों लोक का अदितिनंदन ,
महारथी पराक्रमी दैत्येन्द्र था ,
इसके पुरुषार्थ के अभिमुख ,
रघुनाथ तुनक प्राणी – सा था।
दैत्येन्द्र संग्राम में पराभूत हुआ ,
क्योंकि भ्राता ने मेल छोड़ा था ,
रघुनाथ संग्राम में विजय हुआ ,
क्योंकि भाई ने मेल निर्माया था।
लंकापति संग्राम में पराभूत हुआ ,
इसके पास भार्या की अभिशाप थी ,
दशरथनन्दन संग्राम में विजय हुआ ,
इसके पास भार्या की प्रभुत्व थी।
हे दशरथनन्दन ! तू कृतार्थ है ,
जिन्हें मिला भरत – सा भ्राता ,
अयोध्या की तख्त को ठुकरा ,
भ्राता का निकटता चुना वह।
राजप्रासाद में रहकर भी ,
सीतापति के तुल्य भरत ,
चौदह वर्ष तक सहजात भी ,
वन – सा जीवन गुजारा था।
जग में जिसको मिलता भ्राता ,
बड़ा भाग्यशाली होता है वह ,
जिस भ्राता में भरत का अंश न हो,
तो भ्राता न होना ही भाग्यशाली है।
लेखक :- उत्सव कुमार आर्या
जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार