भ्रष्टाचार
इस देश में भ्रष्टाचार बढ़ गया है भयावह स्तर तक,
फैल गया है यह, सुविस्तारित वट वृक्ष सा।
बढ़ कर इसकी जटायें मिल गयी हैं जड़ों से-
और समा गई हैं गहरे, मानस मन की भूमि में।
भ्रष्टाचार का यह अकेला ही वृक्ष अब हो गया है सघन वन-
और बन गया है अभयारण्य, अनाचारियों का दुराचारियों का।
इसकी सघनता और हरित अंधकार में
अपराधी सहज ही छिपा लेते है अपने आपको,
अपने कदाचारानुसार पापिष्ट ढूंढ लेते है अपने लिए आश्रय।
कुछ छिप जाते हैं इसके कोटरों में, चिपक जाते हैं कुछ
इसकी जड़ों से कीड़े मकोड़ों से, कुछ दिनांध उलूक से बैठ कर
इसकी शाखों पर बिता देते हैं अपना निर्वासन-
और कुछ उल्टे लटक जाते हैं चमगादड़ों की तरह।
कुछ चयनित और निर्वाचितों को इसकी हरीतिमा करती है बहुत आकर्षित।
वे स्वत: ही खिचे चले आते हैं इसकी ओर बोधिसत्व पाने को।
अधिक धन प्राप्ति का मार्ग तलाशना ही है उनका बोधिसत्व।
समझ नहीं आता कैसे हो पायेगा इस भ्रष्टाचार के वृक्ष का समूल नाश ?
कैसे पूरी हो पायेगी परिकल्पना-
भ्रष्टाचार मुक्त समाज के निर्माण की।
जयन्ती प्रसाद शर्मा