भ्रम
मानव मन ने निराकार के,
जो जो रूप गढ़े
पीढ़ी दर पीढ़ी ने उनके,
मंदिर किये खड़े
धनुष कमान एक को देकर
झापित राम किया
मोर मुकुट और वंसी वाला
नामित कृष्ण हुआ
अवतारी कह महा पुरुष को,
बस गुणगान किये
जहाँ जहाँ वे गये वहाँ पर
ठाड़े किये ठिये
निराकार ईश्वर मंदिर र्में
बन कर नारायण
नहाते वस्त्र बदलते दिन में
रातों करें शयन
प्रकृति माँ के दृष्य रूप दो,
चेतन अवचेतन
कोई शायद ही समझा हो,
जीवन और मरण
किसने भेजा कहाँ से आये
पंच तत्व के तन ?
निराकार ईश्वर की माया
अति अभेद्य भवन