भोर
महाश्रृंगार छंद सृजन
भोर ने जब भी खोली आँख, लालिमा लेकर अपने संग।
मिटा अवसादों का हर जाल, दिशा हो जाती है खुश रंग।
मलय -सा माथे पर है सूर्य,
लगा खिलने तब मध्यम धूप।
हृदय को कर जाता है स्पर्श,
सजा है स्वर्ण किरण सा रूप।
खिलें हैं स्वागत में हर पुष्प, नदी झरनों में उठा तरंग।
भोर ने जब भी खोली आँख,लालिमा लेकर अपने संग।
गूँजती किलकारी घर-द्वार,
नई जागृति लाती है भोर।
अमृत जीवन में भरता वात,
हुआ आनंदित हर दृग कोर।
हुई ताजा उससे हर साँस, रगों में भरने लगा उमंग।
भोर ने जब भी खोली आँखलालिमा लेकर अपने संग।
हुई तितली नीली स्वेताभ,
गगन उड़ते चिड़ियों की शोर।
प्रात का सुन्दर मनहर दृश्य,
सभी को करता भाव विभोर।
प्रात कहता अब जाओ जाग, उठो मानव छोड़ दो पलंग।
भोर ने जब भी खोली आँख,लालिमा लेकर अपने संग।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली