भोर के पल ढूंढा करता हूँ……..
गीतिका
काली कजराई रातों में भोर के पल ढूँढा करता हूँ,
आँखों की सूखी झीलों में नीलकमल ढूँढा करता हूँ |
बंजारों सा जीवन जीकर ठौर -ठिकाने भूले जब,
सुधियों की गठरी में अपने बिसरे पल ढूँढा करता हूँ |
जर्जर होकर रिश्ते नाते खंडहर से आभासित होते,
संबंधों का तर्पण करने गंगाजल ढूँढा करता हूँ |
शीतल छाँव दिया करता, मैं जिसको थामे चलता था,
जीवन मेले में छूटा माँ का आँचल ढूँढा करता हूँ |
अभिलाषा ने स्वप्न संजोये नयनों में बसने की चाहत,
नेह निमंत्रण देती आँखों में काजल ढूँढा करता हूँ |
जीवन के मरुथल में जो अब सरस्वती सी लुप्त हुई,
सूखे अधरों पर मुस्कानें, मैं निश्छल ढूँढा करता हूँ |
नाभि सुवासित कस्तुरीमृग फिरे “आरसी” जंगल-जंगल,
मन की जहाँ कुमुदिनी खिलती वो दलदल ढूँढा करता हूँ |
-आर. सी. शर्मा “आरसी”