भोग की नियति तो है ही ध्वंस
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भोग की नियति तो है ही ध्वंस
मैं राम हूँ।
परंपरा निभाता हुआ राम।
मेरा अस्तित्व किन्तु, है रावण।
संस्कारगत लाम।
भोग की नियति तो है ही ध्वंस।
जीवन में कहीं रहा है क्या योग का ही अंश?
ऋषि संतान रावण निहत्था
जीवनगत सत्यता हित
सृष्टि को मथा है।
निहत्थे की शक्ति कहाँ स्थित है
उसे पता है।
भोग की नियति तो है ही ध्वंस।
रावण, भारतीय संस्कृति का ही रहा है अंश।
मानवीय सोच का अपभ्रंश।
राम ने
आदर्श का परिधान ओढ़ छल लिया है मुझे।
मेरे होने का उपक्रम।
खड़ा कर दिया मुझे
दो अलग व्यक्तियों की तरह।
हम विमूढ़ खड़े हैं।
अपने-अपने दहलीजों पर
वक्र किए हुए भृकुटी
आड़े हैं।