भोगी
ताकना है झांकना है आंकना है कर्म को।
बेंचना निर्लज्जता है, फांकना है शर्म को।।
है निरा आज़ाद शारीरिक और वैचारिक भी।
मन बिका तन बिका अब बेचते है धर्म को।।
वो नहीं हैं मानते, कोई नियम बंधन कोई।
न कोई उनका खुदा न ईश, रघुनंदन कोई।।
खुद की पैदाइश को, बाप की अय्याशी कहें।
न कोई उनका फरिश्ता, न मानते रिश्ता कोई।।
है धरा पर वस्तु बहु, है वस्तु सब उपयोग की।
आज में जीते है जो, हर वस्तु है उपभोग की।।
ऐसी जेहनियत वालों को मैं “संजय” क्या कहूं।
ये सभी कम्युनिस्ट हैं, सारे जहां का रोग भी।।
जय हिंद