भेद मगर खुलकर आएगा
चाहे जितना स्वांग रचा ले भेद मगर खुलकर आएगा।
सुख की छाँव, दमकते मुखड़े, दुख की धूप उजागर दुखड़े।
जीवन सरिता की धारा में, पाँव लहर पाते ही उखड़े।
जब सिर पर सूरज दहकेगा, असली रंग नज़र आएगा।
सच है आते जाते सुख दुख, थोड़े अनुभव कह जाते हैं।
सुख के साथी दुख आते ही, छोड़ भंवर में बह जाते हैं।
कड़ी धूप में या बारिश में नकली रंग उतर जाएगा।
क्यों ईश्वर को भूल गया है, जग से करनी छिपा रहा है।
मिथ्या नेकी की बातों को, बढ़ा चढ़ाकर बता रहा है।
जो स्वकर्म से भाग्य कमाया, वह तुझ तक चलकर आएगा।
नहीं साँच को आँच सूक्ति से, इतना भाव मुखर आता है।
प्रबल अनल में तप तपकर भी, कुन्दन खरा निखर आता है।
सच का कबच अगर है तन पर, बिल्कुल नहीं असर आएगा।
संजय नारायण