भेजते रहें कबूतर पर कबूतर हम
आये है छत में हम भी आज लेके छत्तरियाँ बरसात में
पर वो भड़का गया ले भीगा बदन,चिंगरियाँ बरसात में
हम भी सोचते रहें कि दिल की दिल से बात हो गई है
भेजते रहें कबूतर पे कबूतर दे प्रेम चिठियाँ बरसात में
उसका एक एक लफ्ज़ रूह तक उतर गया ऐसे यारों
जैसे झोपड़ें में मेरे आके गिरी हो बिजलियाँ बरसात में
पहुंच ही नहीं पाए शायद मेरे लिखें सारे ख़त उनको
शामिल साज़िश में रही लोगों की उंगलियां बरसात में
हमें तन्हा समझकर जुगनुओं ने रौशनी की थी यारों
क्या फायदा जला रही थी रूह को सर्दियाँ बरसात में
मैंने उसके नाम लिखकर समंदर में उतार दी है दोस्तोँ
खमोशी से कुछ कागज़ की अपनी कश्तियाँ बरसात में
सियासत देख कर तालाब से बाहर आई वो इस क़दर
सुख गया आखों का पानी कहकर मछलियां बरसात में
हमदर्द