भूलने दें
हृदय मंथन की मारी हूं।
आज भी मां-बाप की दुलारी हूं ।
कैसे कहूं अपनी सहजता को,
कैसे कहूं अपनी निजता को,
जो जीवन तलाक बना दी गई कमी,
जो टूट चुकी है कुछ रिश्तो की डोर से,
टूटे-छूटे रिश्तो को चुना नहीं।
जिंदगी गवाह है मेरी, बिना रिश्ते रहे है।
दोनों में बर्बाद हुए है हम
आग्रह की बेला,
कुंठित हुआ भाग्य मेरा।
यह अस्तित्व है मेरा
नाज़ुक स्थिति में जीती हूं।
औरों का क्या कहना
स्वयं से भूलने दें,कहती हूं ।
टूटे-छूटे रिश्ते की सौगात उम्र-भर
अकेलेपन का अब साथ है।
-डॉ.सीमा कुमारी।26-9-024की स्वरचित रचना है मेरी।