भूलना नहीं चाहता
आज का दिन याद नही करना चाहता
संस्मरण में भी उसका अवशेष शेष नही रखना चाहता
ये दर्द जो बरसो पहले तड़पा गया था
अपनो की आग में अपनों को जला गया था
जीते-जागते इंसान को मांस का टुकड़ा बना गया था
वो सब भूल जाना चाहता हूँ
आज की तारीख
कैलेंडर से मिटा देना चाहता हूँ
जनाजे तो रोज उठा करते हैं
पर उस दिन जनाजो का काफिला निकला था
समंदर का खारापन आंखों से बहने लगा था
रात में कहाँ सोती है मुम्बई
फिर न जाने कौन उसे जगाने चला था
कोई था जो खुद को ख़ुदा का बंदा कहने लगा था
ये कैसा खुदा था
जो सिसकियों को सुन कर खुश होने वाला था
आज के दिन को सिर्फ मोमबत्ती जला कर
भूलना नही चाहता
जिसने छीन ली थी आंखों में बसी नींद को
उसे किसी का ख़ुदा बनते नही देखना चाहता