भूख
भूख, एक छोटा सा शब्द
पूरी दुनिया की गति
अपने में समेटे हुए है।
भूख, एक बीज है;
कर्मशीलता की पौध
इसी बीज से पनपती है।
भूख एक अहसास है;
जितना अधिक अनुभूत होती है
उतने ही अधिक परिणाम
अपने आंचल में समेट लेती है।
भूख शारीरिक व मानसिक भी है ।
ये देह को गिरफ्त कर
कभी उदर तो कभी गला
और कभी कामाग्नि बन
देह को तपाती है।
यही जब मन को गिरफ्त करती है
तो मन में प्रेम, सम्मान, वात्सल्य,
आदर्श, संस्कार, पहचान, श्रेष्ठता
विजय आदि की चाह उठाती है ।
जब तक यह मर्यादित है
सृष्टि का निर्माण करती है,
किन्तु अपनी सीमा रेखा लांघ
कभी-कभी अमर्यादित हो
बहुत उत्पात मचाती है ।
मानुष को अमानुष कर जाती है।
सृष्टि के सर्वधर्म सर्वग्रंथ
सब नीति शास्त्र
इसी भूख के नियमन को है।