“भूख और स्वाभिमान”
“अरे जा रे घुनिया ऊ कार रुकल हई । देख देख कुछ तो मिल जावेगा ।” कटनी बोली
“ऊंss हम नाही जाएब, तू जा रे ठल्ली ।”
“ऐ बाबूजी, कुछ पैसा दे दो ।” ठल्ली कार के कांच को ठकठकाते हुए ।
“जाओ-जाओ” कार के अंदर से आवाज़ आयी ।
ठल्ली भागकर कटनी के पास गई और “माई, ई काम हमका अच्छा नाही लागत है । टकटकी लगाए बैठल रही । कोनो मजूरी करत हैं ।”
कटनी–“हाँ तोहरे बाप के फैक्टरी हई ना, जा में मजूरी मिलत । ऊ एक घर बर्तन करे रही। ओके हमरे कामे पसंद नाही आवत रहे । काहे को मजूरी, बैठल मिल जात है । कोनो खराब नाही और ना ए से सेठ के कोनो कम पड़त है।”
“ऐ माई, तू झूठ नाही बोल ऊ बरतन करत बखत हूआं से तू पांच हजार रुपया चोरी करे रही । जे सेठानी भगा दई तोड़ा के ।” घुनिया तपाक से बोली ।
“चटाक…” एक चांटा जड़ दी कटनी और “चुप हमका सिखावत है ।”
तभी एक दुकानदार पांच रुपया हाथ में लिए –“ए छोरी ले ये ले ।”
“हमका कोनो काम देदो सेठ हम भीख नाही लेब ।” बैठे-बैठे घुनिया बोली ।
–पूनम झा
कोटा राजस्थान
mob.. 9414875654