भूख(ग़ज़ल)
बह्र-1222 1222 1222 1222
काफ़िया-आते
रदीफ़-हैं
“भूख”
******
ग़रीबों की न पूछो जात आँसू ये बहाते हैं।
छुपाकर ज़ख़्म अपनों से नज़र उनसे चुराते हैं।
पड़ा जब भूख से पाला लुटे तब ख्वाब बचपन के
लिए खाली कटोरा हाथ में इज़्ज़त गँवाते हैं।
निचोड़ा अर्थ ने इनको मिली जूठन ज़माने की
तरसते ये निवाले को नहीं छाले गिनाते हैं।
किया सौदा मुहब्बत का अमीरी ने यहाँ देखो मिलाकर ख़ाक में हस्ती गरीबी को चिढ़ाते हैं।
लुटा दी आबरू अपनी यहाँ ममता बहुत रोई
बने हैं रहनुमा जो भी वही नश्तर चलाते हैं।
सियासत खेलती है खेल ‘रजनी’ क्या मिला इनको
ज़माने से मिली नफ़रत अजी ये मुस्कुराते हैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज वाराणसी
संपादिका-साहित्य धरोहर