भुलाता जा रहा है सादगी को
भुलाता जा रहा है सादगी को
ये क्या होने लगा है आदमी को
जिधर देखो अँधेरा ही अँधेरा
चलो हम ढूँढ लाये रोशनी को
उठाता हाथ है औरत पे जो भी
वो गाली दे रहा मर्दानगी को
सभी को सादगी अच्छी लगे है
नहीं चाहे कोई आवारगी को
फ़क़ीरी का अलग अपना मज़ा है
सलामी आप ही दो साहबी को
बुरे हालात ‘माही’ मुल्क़ के हैं
भटकती है जवानी नौकरी को
माही