भुक्त – भोगी
, भुक्त-भोगी
हृदय के कितनी निकट हो,
यह हृदय,ही जानता है !
दूर जाते हो जभी भी;
मचलता , कब मानता है !!
रात में जब आँख खुलती,
चाहती तुम्हें देखना !
किंतु ये दुनियां है यारो ;
निकटता कब मानता है !!
स्वप्न में तुम को सजाकर,
बात करता हूँ बहुत !
किंतु जब उत्तर न मिलता;
खुद से उत्तर माँगता है !!
पीत च॔दन त्रिकुटि पर जब,
देखता हूँ मैं तुम्हारे !
मन भी होता पीतमय तब;
कमल होना चाहता है !!
हाथ का स्पर्श पाना ,
है कठिन मेरे लिए !
सूर्य को भी अंक भर लूँ;
खाक हो कब जानता है !!
नींद से भी नींद में जब,
स्वप्न आएँगे तुम्हारे !
बस वही सौगात होगी;
हृदय,यह ही जानता है!!
आप से यह दोस्ती कर ,
जान पाया हूँ अभी तक !
जो तुम्हें जितना नकारे ;
नेह उतना मानता है !!
प्यार का इतिहास लिख-लिख,
बाँट दूँगा में जहाँ में !
कौन कीमत जान पाया;
भुक्त भोगी जानता है !!
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राम स्वरूप दिनकर, आगरा
विशुद्ध आत्म-चिंतन
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