भीष्म देव के मनोभाव शरशैय्या पर
बाणों की शैया पर लेटे,
धर्म का सूरज उगते देखे।
तन से कैसे प्राण ये निकले ,
शिक्षा इसकी भीष्म हैं देते।। १।।
मन मेरे तू रम जा रे ,
कृष्ण चरण के वंदन में।
अवतार धरे जो मृत्यु लोक में ,
भक्त के प्राण वचन के रक्षण में।। २।।
ऐसे गिरधर के चरणों में मेरे मन को रमने दो।।
श्यामल श्यामल वर्ण है जिनका,
पीताम्बर है तन पर धारा।
स्वेद बूँद से भीगा मुखमण्डल,
त्रिभुवन मोहित करने वाले ,पार्थसारथी हो कृष्णा।। ३ ।।
ऐसे जगत्पति के चरणों पर,मेरा आकर्षण हो।।
केवल दृष्टिपात से जिसने ,
लाखो सैनिक तार दिए।
बहती वाणी की गंगा से ,
पार्थ के मोह पाश भी काट दिए।। ४।।
ऐसे हरी के मोह जाल में, मेरे मन को बँधने दो।।
दास भी बनते, सखा भी बनते ,
वो पार्थ सारथि , दूत भी बनते।
बस उनकी शरणागत लेने की देरी ,
वो वचन तोड़, लांछन भी सहते।। ५।।
ऐसे हरी भक्ति में बस, मेरे मन को रमने दो।।
हे मन बस तू अब चिंतन कर ,
माधव के बृजमण्डल की लीला पर,
भक्त प्रेम में आवेशित होकर ।
कुरुक्षेत्र में चक्र उठाते मोहन पर।।६।।
ऐसे मोहन के मुखमण्डल पर,मेरा मन आकर्षित हो।।
हे गिरधर ,मृत्यु के इस क्षण में,
चिंतन मैंने बस है तेरा किया l
बाणों से मैं बंधा हुआ ,
किन्तु मोह पाश से छूट गया ।। ७ ।।
ऐसे मोह मुक्त करने वाले हरी में,मेरे मन को रमने दो।।
शर शैया पर लेटा हो,
या काल ग्रास से जकड़ा हो।
मोह भय और कष्ट मिटा दे ,
यदि हरी का सुमिरन मुख पर हो।। ८।।
हे हरी अपने चरणों में, हम सबके मन को रमने दो।।