भीतर की प्रकृति जुड़ने लगी है ‘
उन्हें पसंद नहीं मेरी उमंगें
मन हुआ समेंट कर छुपा दूँ
किसी तितली के पंखों में ,,,,
उन्हें बेमाने लगीं मेरी मुस्कुराहटें
मन हुआ घोल दूँ रंगों में
हो जाएं खुशरंग तस्वीरें ,,,,
कहाँ फुर्सत मेरे शब्दों के लिए
मैं मासूम शब्दों को सजा कर
टांकने लगी सितारों सा
अपनी कविताओं में ,,,
उनके लिए फिजूल था मेरा स्नेह
मन हुआ सारा दे दूँ
बारिश के बादलों को
जिन्हें नहीं ठुकराती कभी धरती ,,,
उन्होंने सौंप दिये मुझे अंधेरे
में सीखने लगी जुगनुओं से
खुद में रोशनी जगाना और
खुद का हो जाना ,,,,,
अब तकलीफ है मेरे वज़ूद से
में करने लगी हूँ गुज़ारिश
पेड़ – पौधे – परिन्दों से
नदी – तालाब – झरनों से
आकाश – अंतरिक्ष – दिशाओं से
कि आ जाओ समा जाओ मुझमें
या समेंट लो मुझे खुद में
भीतर की प्रकृति जुड़ने लगी है
बाहर की प्रकृति से ,,,,
– क्षमा उर्मिला