भीगी पलकें
छुप गया दिनकर गगन में सांध्य जीवन ढल रहा,
आज भीगी पलक बोझिल दर्द सहना खल रहा।
नयन में सावन बसाया प्यास उर में रह गई,
गीत अधरों पर सजाए तड़प सुर में रह गई।
दूरियाँ हर पल सतातीं नेह उर में पल रहा,
आज भीगी पलक बोझिल दर्द सहना खल रहा।
गुन रहा मन प्रेम इसको मैं कहूँ ये साधना,
बीज पत्थर पर उगाकर रो रही है भावना।
साँस तप से पिघलतीं अंतस तपन से जल रहा,
आज भीगी पलक बोझिल दर्द सहना खल रहा।
मौन तुम हो मौन मैं हूँ मौन सारी कामना,
ध्वस्त सपने हो गए अब मौन दिल की प्रार्थना।
ध्यान में तुमको बसाया द्वंद्व हिय में चल रहा,
आज भीगी पलक बोझिल दर्द सहना खल रहा।
प्रेम के अनुबंध में उन्माद होना चाहिए,
नील नीरज नयन में संवाद होना चाहिए।
बस गए हो तुम हृदय में प्रीत पाना छल रहा,
आज भीगी पलक बोझिल दर्द सहना खल रहा।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)