*भिन्नात्मक उत्कर्ष*
डॉ अरुण कुमार शास्त्री
भिन्नात्मक उत्कर्ष
जीवन तनहाई ही तो है, अंततोगत्वा ।
रह सकते हो तो तन्हा ही रहना, लड़ना ।
और उसी प्रक्रिया में देह त्याग देना ।
सम्मान करना सीख लो यदि पुरुष हो
तो नारी का, अपनी हो पराई हो
और यदि नारी हो तो पुरुष का ।
वरना अकेले ही रहना , भिन्नात्मक उत्कर्ष
या अनमने मन से साथ रहने को
साथ नहीं कहा जा सकता , एय दोस्तों ।
अन्यथा –
जीवन तनहाई ही तो है, अंततोगत्वा ।
रह सकते हो तो तन्हा ही रहना, लड़ना ।
और उसी प्रक्रिया में देह त्याग देना ।
प्यार है तो ये ही व्यवहार है तुम्हारा ,
जो लेकर जाएगा मंजिल तक,
हां देर लगेगी , ये लिख के ले लो सुनिश्चित है ।
जीवन तनहाई ही है अंततोगत्वा
रह सकते हो तो तन्हा ही रहना लड़ना ।
टूट मत जाना बीच मझधार में ।
फिर कुछ नहीं बचेगा ।
इच्छा को सर्वोपरि मानकर झुक भी मत जाना,
स्थिर रहोगे तो ही सुरक्षित रहोगे ।
तनहाई सुनाएगी गीत अनमने अनजाने
और तुम्हें सुनना पड़ेगा, जीतोगे तो तारीफ
हारोगे तो ताने, सहना पड़ेगा । लिख के ले लो ।
जीवन तन्हाई ही है अंततोगत्वा
रह सकते हो तो तन्हा ही रहना, लड़ना ।
अपनों ने अपमान किया तुम सह आए, क्यूँ कि वे अपने थे ।
गैरों से सम्मान, मिले तो क्षुब्ध हुए , और तन गए ।
मत नियत को नियति मान लेना तुम ।
मानोगे तो चूक होगी , बहुधा ऐसा ही होता है ।
तुम मत चूक जाना , वक्त हालात, किस्मत से
तुम्हें आसानी से कुछ न मिलेगा, छीनना पड़ेगा ।
मेहनत से , या किस्मत से….या फिर वक्त से ।
जो पाओगे सिद्ध सत्य , सैद्धांतिक संकल्पना में
स्वीकार करना पड़ेगा , ये जीवन मात्र एक अकेला ही,
मौका, देता, मौला सब को , तुम कोई खास नहीं।
लेकिन पहले परीक्षण करेगा , फिर देगा ।
चुरा सको तो चुनना मार्ग सजग हो कर ,
भूख को शरीर की कमजोरी मान नकार सको तो चलना ।
आसानी से उपलब्ध नहीं होगा , बुद्धत्व समझा करो ,।
अन्यथा इसको मत लेना , प्रयास तो करो ,
विचलित मत होना ,
जीवन तन्हाई ही तो है, अंततोगत्वा ।
रह सकते हो तो तन्हा ही रहना, लड़ना ।
और उसी प्रक्रिया में देह त्याग देना ।
साथ दिखेंगे अनेक, होंगे नही , भ्रांति होगी सत्य नहीं ।
जो होंगे वो दिखेंगे नही , लेकिन सच्चे अर्थों में ,
वो ही तेरे होंगे , मगर साथ चलने की जिद्द उनसे कभी करना नहीं।
आना होगा तो कहने की आवश्यकता नहीं होगी ।
नहीं आना होगा तो कह के देख को आएँगे नहीं ।
जीवन तन्हाई ही तो है, अंततोगत्वा ।
रह सकते हो तो तन्हा ही रहना, लड़ना ।
और उसी प्रक्रिया में देह त्याग देना ।
वरना अकेले ही रहना , भिन्नात्मक उत्कर्ष
या अनमने मन से साथ रहने को
साथ नहीं कहा जा सकता , एय दोस्तों ।
अन्यथा –