भिखारी
स्टेलर आई टी पार्क के मेन गेट पर जिस वक्त रिक्शा रुका, घड़ी में सुबह के ठीक नौ बज रहे थे। यहाँ पन्द्रह-बीस कम्पनियों के दस हज़ार कर्मचारी लगभग सभी शिफ्टों में काम करते हैं। जिस कारण सड़क पर रेहड़ी-ठेला लगाये लोगों का रोज़गार हमेशा गरम रहता है। कुछ सुबह की शिफ्ट वाले तो कुछ नौ से छह की जरनल ड्यूटी वाले नाश्ते में छोले-कुलचे, तो कोई पराठें खा रहे हैं। पनवाड़ी की दुकान के सामने खड़े कुछ लोग बीड़ी-सिगरेट फूंक रहे हैं। तो कुछ पान-तम्बाकू चबाये रहे हैं। इनके अलावा रैलिंग के पास खड़े कुछ लोग गप्प-शप लड़ा रहे हैं। सूर्यदेव पूरी आभा के साथ आकाश में चमक रहे हैं। चहुँ और सीमेंट की ऊँची बिल्डिंगों और कंकरीट की सड़कों का विस्तार है। इन सबके अलावा इक विशेष बात पनवाड़ी का रेडियो जो चौबीसों घण्टे फ़िल्मी रोमांटिक गीत बजाता था। आज कुछ अलग गीत (देशभक्ति टाइप) बजा रहा है। शायद 14 अगस्त होने के कारण ऐसा है। आसमाँ पे है ख़ुदा, और ज़मीं पे हम। आजकल वो इस तरफ़ देखता है कम। ये गीत खत्म हो रहा था और इसके तुरंत पश्चात् बिना किसी प्रचार के नया गीत बजने लगा — दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल। सवरमती के संत तूने कर दिया कमाल। रघुपति राघव राजाराम।
“साहब बीस रूपये।” रिक्शेवाले ने रिक्शे से उतरने के बाद गुप्ता जी की तरफ़ देखकर कहा। वह अभी रिक्शा में ही बैठे थे।
“भगवान ने मुहं दिया नहीं कि फाड़ दिया। सफ़र दस रूपये का भी नहीं और बड़ा आया बीस रूपये मांगने वाला। अबे चार पैडल ही तो मारे हैं लेबर चौक से स्टेलर आई टी पार्क तक।” गुप्ता जी बौखलाते हुए बोले और रिक्शे से उतर गए।
“साहब सभी देते हैं और यही रेट भी है।” रिक्शेवाला पुनः बोला।
“अबे पता भी है एक-एक रुपया कैसे कमाया जाता है? बड़ी मेहनत-मसकत करनी पड़ती है।” रिक्शेवाले को दस रूपये ज़्यादा न देने पडे। इस चक्कर में गुप्तजी ने कमाई का पूरा अर्थशास्त्र समझाने की कोशिश की रिक्शेवाले को।
“ये बात रिक्शेवाले से ज़ियादा कौन समझ सकता है बाबूजी? पैडल मारते-मारते पूरी ज़िंदगी घिस गई मगर कभी एक रुपया नहीं बचा सका अपने लिए।” रिक्शेवाले ने गमछे से अपना पसीना पोछते हुए जवाब दिया।
“बहुत ज़ुबान चलने लगी है तुम्हारी,” कहते हुए गुप्ता जी ने माथे से लगातार चू रहे पसीने को रुमाल से पोछते हुए कहा, “ये दस पकड़, मैं इससे ज़्यादा नहीं दे सकता। गुप्ता जी ने रिक्शेवाले के हाथ में दस का नोट रखना चाहा मगर उसने नहीं लिया। फलस्वरूप दस रूपये ज़मीन पर गिर पड़े।
“अबे उठा ले।” गुप्ता जी रिक्शेवाले पर चीखे। इससे रिक्शेवाले के स्वाभिमान को चोट पहुंची।
“आप ही रख लो साहब। दिन में आपके चाय पीने के काम आएंगे। हम एक वक्त और फांका कर लेंगे।” रिक्शेवाले ने पुनः रिक्शे पर चढ़ कर पैडल पर अपना पैर रखा, “सोचे थे बीस रूपये में हल्का-फुल्का नाश्ता हो जायेगा। आप तो पेट भर के प्रवचन खिला दिए। ऊ का कहत हैं अंग्रेजी मा दिन के भोजन को ‘लंच’ …” और पैडल लगते ही रिक्शा आगे को बढ़ गया। गुप्ता जी दो मिनट सन्न से खड़े उसे यूँ ही जाते हुए देखते रहे। जब तक रिक्शावाला उनकी नज़रों से ओझल नहीं हो गया। उनकी तन्द्रा टूटी तो क्या देखते हैं एक व्यक्ति जो बगल से गुज़र रहा था। उसने गिरे हुए दस रुपए उठा लिए हैं।
“ऐ खबरदार, ये दस रूपये मेरे हैं। इधर लाओ।” कहते हुए गुप्ता जी ने उसके हाथ से दस रूपये लेकर अपनी जेब में डाल लिए। फिर हाथ से अपने बाल संवारते हुए बड़े स्टाइल से दफ्तर की तरफ चल पड़े। जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं था।
अलबत्ता पृष्टभूमि पर पनवाड़ी का रेडियो अब एक नया गीत बजा रहा था — हम मेहनतकस इस दुनिया से जब अपना हक़ मांगेंगे। एक बाग़ नहीं एक खेत नही। हम सारी दुनिया मांगेंगे।