भिखारन
कड़ाके की सर्दी में
खुले आसमान के तले
बैठी एक भिखारन।
ओढ़कर कम्बल,रजाई
दान में मिले कपड़े
ईंटों का चूल्हा
प्लास्टिक की एक बोतल
बस यही था उसका धन।
सुबह-सुबह की सैर में
रोजाना मेरा
उस ओर जाना होता है
जल्दी से आना होता है
वहीं पर पड़ता है
उसके रहने का ठिकाना
एज गंदा सा आशियाना।
राहगीरों को निहारती
दूर से ही अकारण।
उसके चेहरे की बेबजह हँसी
मानसिक विक्षिप्तता नहीं
बल्कि उसके अलमस्त जीने की
निशानी है, बड़ी हैरानी है
न उसे कोई परेशानी है,
न उसने हार मानी है।
खुशदिल है उसका मन ।
घने कोहरे में दुबकी हुई
कभी-कभी गहरी नींद में
बेझिझक सोती हुई
सूरज के उजाले के बाद भी।
मुसाफिरों के शोर में
अलसुबह भोर में
सोचता हूँ कि,
शायद वह आपबीती सहकर
घर से भागकर आयी है
या भगा दिया है उसे अपनों ने
विक्षिप्त समझकर
दिल के कच्चों ने,किंतु
निर्मल है उसका मन ।
तभी तो वह अपने आसपास
श्वान के पिल्लों को पुचकारती
उन्हें स्नेह से बुलाती है
रोटी खिलाती है
गर्म कपड़ों में छुपाकर
प्यार से सहलाती है ।
आज की सफेद धुंध में
जैसे ही उस पर नजर पड़ी
सोचा, इसे कुछ दे दूं
जेब में हाथ डाला तो
पायजामें में मात्र
दस रुपये की चिल्लर थी
किंतु उसके लिए पर्याप्त थी
मुस्काते हुए ले ली उसने
अंजुली बांधकर,
चाय पीने के लिए
सहारा मानकर
हालातों की मारी बेचारी
निर्बल था उसका तन।
जगदीश शर्मा सहज