भाषा
अजीब सी छटपटाहट है
रुह को
बंधन में इंसानी देह की ………….
नहीं मिल पा रहा है उसे चैन
देखकर और महसूस कर
वातावरण और संबंधों में घुला
भाषा में बढ़ता हुआ जहर
लुप्त हो रहे हैं भाषा में
मायने मर्यादित शब्दों के
जन्म ले रहा है आक्रोश उनमें
नए अर्थ के साथ दिन प्रतिदिन
कोई मायने नहीं है
बोलकर और सुनकर
लुप्त होती मर्यादित भाषा …………
मुक्त होना चाहती है
रुह
इस छटपटाहट से
बंधन में इंसानी देह की……………….