भाषा अपनी गरिमा खोती जा रही है
बुजुर्गों के लिए अपशब्द का इस्तेमाल करना हमारी संस्कृति का हिस्सा ही नही था कभी। लेकिन इस की शुरुआत हुई हमारे देश में . थोड़ी देर के लिए ठहर कर सोचें निष्पक्ष भाव से।
किसी के लिए ये करना ज्यादा कठिन नही होगा, होना भी नही चाहिए।
धर्म को बीच से हटा दें तो हम सब भारतीय मूल के लोग हैं और हमें बचपन में ही घुट्टी की तरह पिलाई जाती है कि अपने से बड़ों का आदर सम्मान करो, गुरु जनों को सर्वोच्च स्थान दो। इसी में सब समाहित हो जाते हैं।
तो फिर अपने देश के प्रथम,द्युतिये, तृतीये या जितनी गिनती आती हो गिन लें उन का सम्मान करना कैसे नही सिखाया जाता…
लेकिन कुछ भीषण हुआ, जैसे अचानक सब कुछ बदल गया। अपने ही देश के पहले प्रधान मंत्री से लेकर मनमोहन सिंह जी तक को गालियों में तौलने कि परम्परा का शुभारम्भ हुआ।
बाबा साहेब, लेनिन मार्क्स जितने भी बुद्धिजीवी थे सब की पुश्तों को नापने का तरीका ईजाद किया गया।
आम लोग इस तरह के भाषा के आदि नही थे, कम से कम अपने शाशकों को लेकर तो कतई नही। लेकिन उन्हें भी सुनने में मजा आया इतना कि उनकी रग रग में वो भाषा अपना स्थान बृहद रूप से बनाने लगी। सब को मजा आने लगा नेहरू का औरतों के साथ का फोटो गाँधी का एक अलग रूप में परिचय कराया गया। मनमोहन सिंह को चूड़ियां भेजी गई, राहुल को पागल घोषित किया गया, सोनिया को कौंग्रेस की बिधवा कहा गया, माया वती को स्त्री ही नही रहने दिया गयाऔर न जाने क्या-क्या।
सभी बिपक्षी नेताओं को सरेआम शब्दों से नंगा किया गया। और ये सब करने के लिए सोशल मिडिया को एक बड़े प्लेटफार्म के रूप में इस्तेमाल किया गया।
आम लोगों के हांथो में रिमोट पकड़ाई गई जो जितनी गलियां देगा, जो जितना निचे गिरेगा और गिरायेगा उसे उतना अधिक बोनस मिलेगा।
शाह ने खुलेआम कहा, जनता हूँ मुलायम सिंह को अखिलेश यादव ने थप्पड़ नही मारा, लेकिन उससे क्या ?
मतलब आप ने सब को परमिट बांटी, इन सात- आठ सालों में देश की भाषा बदल गई, निम्न से निम्नतम हो गई।
लेकिन फिर भी सुधारने को तैयार नही। अभी भी देखने को तो यही मिलता है जो ‘साहेब’ पर छीटा कसी बर्दास्त नही कर पाते वो। बिपक्ष के बुजुर्ग नेताओं जो अब दुनियां में नही, उन पर की गई घटिया टिपण्णियों को बड़ी आसानी से हजम कर जाते हैं।
ऐसा होना तो नही चाहिए, आप को समग्रता में ये स्वीकार करना होगा की आप को गाली पसंद है या नही है। नही है तो सब के लिए नही होना चाहिए ये नही की नेहरू को दे सकते हो लेकिन मोदी को नही।
इस परम्परा को रोकना है तो उन से कहना होगा जिन्होंने इसका बीजारोपण किया की आएं और
इसके जड़ में अपने शुभ हांथों से मट्ठा डालें।
नही तो ये इस देश की संस्कृति में शामिल होने वाली है।
लोग इमरजेंसी को कई तरह से याद करते हैं। लेकिन मैं याद करती हूँ कि हम उस देश में रहते हैं जिस देश के लोग अपने देश की प्रथम महिला प्रधान से नाराज होते हैं तो उस नाराजगी को दर्शाते हैं, उन्हें बताते हैं कि हम आप से नाराज हैं, आप को प्रधान नही रहने देंगे, आप अपनी गलतियों को माने और घर बैठे। लेकिन किसी ने इतनी नीचता नही की कि उनको गालियों में तौला जाय। लेकिन वही ‘इंद्रा’ जब मांफी मांगती हैं, हाथ जोड़ कर पुरे देश से तो फिर पूरा देश उन्हें मांफ भी कर देता है, उनका खोया उनको लौटा भी देता है।
लेकिन अब कुछ अजीब है और उस अजीब में हम सब फंसे हैं।
और एक बात इतिहास का और धर्म का थोड़ा बहुत ज्ञान तो सब में होता ही है। तो सब को उस ज्ञान के गागर से एक लोटा ज्ञान निकाल कर उसे गंगाजल समझ कर फिर अपने में ही समाहित होने देना चाहिए, कि शक्तिसाली से शक्तिशाली राजा हो या भगवान का भी उनके उस कालखण्ड में सूर्यास्त हुआ ही है।
जैसे सूर्य का निकलना निश्चित है वैसे ही अस्ताचल को जाना भी।
कभी देर तो कभी सबेर। उसके बाद नए सुबह में बीते दिनों कि जो खाल उतारने की परम्परा डाली गई तो वो भी नही बचेंगे जिन्होंने इसकी नीव डाली उनकी भी उतरेगी ही। और बचाने के लिए हम आप भी नही होंगे। और वो भी नही बस कुछ ऐसे ही लोगों की भीड़ होगी जिसे बड़ी सिद्द्त से तैयार की गई है।
कोशिस सब को करनी चाहिए की दूसरे की गरिमा बनी रहे। क्यूँ कि हम मानव हैं और मानव में अपनी अलग बिकृतियाँ होती है वो कुछ बिकृति लेकर ही पैदा होता है। कोई इस से बचा नही सब आते हैं इसकी जद में नेहरू से मोदी तक, हम से आप तक।
तो मोर को नाचते किस ने देखा ? मोर नाचते वक्त भूल जाता है वो पीछे से नंगा हो चूका है।
हम इंसान आंखों के कोरों में लाज भी पालते हैं। उस लाज को जिन्दा रहना चाहिए वो जिन्दा नही रहा मतलब हम सब पशु हो गए।
बहुत होगया शायद, ज्यादा ही… मांफ करें … जय हो
…सिद्धार्थ