******भाव कलम के******
छटा प्रातः की देख कर मन भाव ऐसे उठ गये।
इंद्रधनुष रंगों ने मानो, नभ में रंग भर गये।।
रंग सिंदूरी सजा है यों, धरा मांग भर रही।
प्रीतम के दर्शन को आतुर सज श्रृंगार कर रही।।
छबि सूरज बन बिंदी माथे, है तेज बिखेर रही।
जल में प्रतिबिंब रूप दर्पण, नार हो निहार रही ।।
लाली ओंठ लगाके किरणें, प्रकृति वंदन कह रही।
शांत शीतल सरि सुबहो के चरण पखार बह रही।।
सुखदायक मनहोहक पल में पिता पुत्र दोई जगे।
स्वप्न नैन उन्मुक्त गगन संग पंछी बन उड़े भगे।।
सबसे ऊंचा कद हो तेरा भावना मन में जगी।
नन्हा बेटा राज दुलारा आत्मा तुझ में लगी।।
पाकर पुत्र चौड़ा सीना यों पिताश्री करने लगे।
बार बार उछाल कर मानो धन्य भाग्य कहने लगे।।
आ तेरे जीवन में अनुभव प्यार जहाँ का भर दूँ।
सुख-दुख कठोर परिश्रम सबसे रूबरू तुझे कर दूँ
देख पिता-पुत्र की आश कलम भाव में बहने लगी।
पूरक जीवन इक दूजे का संसार कहने लगी।।
मानव जीवन लख चौरासी,योनि बाद है मिलता।
जयजीवन सफल बेटे यहाँ जो संग प्रकृति चलता।
## कलम से
संतोष बरमैया “जय”
कुरई, सिवनी, म.प्र.