भावाञ्जलि
बाल लेखनी को कहाँ, मिला कभी विस्तार।
शब्दों का सुंदर गठन, भावों का आकार।।
शब्द शून्य, भाव शून्य, काव्य का प्रभाव शून्य
मूढ़ मति कविता से, दूर भागने लगी।
एक दिन शारदे का, नाम लिख जाग उठी
भाव समिधा से यज्ञ, माँ का ठानने लगी।
छंद का समस्त ज्ञान, काव्य-गीत का विधान
लेखनी न जानती थी, किन्तु जानने लगी।
शब्द-शब्द वीणा के ही, तार बन गूंज उठे
मातु शारदा जो कण्ठ, में विराजने लगी।
माँ वाणी के स्नेह से, हुआ अजब संचार।
स्वतः प्रस्फुटित हो उठे, कवितामय उद्गार।।
बाल लेखनी को मिली, प्रेरणा अनूप और
पंक्ति-पंक्ति भावना का, पाग पागने लगी।
मन के विचार आत्मबोध से निहार आज
ममता, पुनीत, प्रेम, राग छेड़ने लगी।
नन्हीं-नन्हीं उँगलियों, की छुवन मिली और
कविता भी साथ-साथ, खेल खेलने लगी।
लेखनी के साथ रूप, को बदल रूपसी यों
अंग-अंग में शृंगार, रोज ओढ़ने लगी।
सुंदर भावों के वसन, छंदों का शृंगार।
अजब सुंदरी ने रचा, रूप सुखद मनुहार।।
यौवन के द्वार खड़ी, ज्ञानचक्षु खोल सभी
देश, धर्म, नीति, ज्ञान को निहारने लगी।
सत्य में असत्य और, धर्म में अधर्म रूप
को समाज देश हित, में विचारने लगी।
अंग में उमंग धार, कल्पना की पेंग मार
भ्रष्ट नीति को सगर्व, ललकारने लगी।
लेखनी का ये स्वरूप, देख चूम मात भाल
शारदा सहर्ष प्रेम, से दुलारने लगी।
प्रौढ़ लेखनी नित उठा, देश-जाति का भार।
शब्द-शब्द में दे रही, मानवता को धार।
मात शारदे की कृपा, माँ का प्यार अपार।
मिले लेखनी को सदा, करती यहीं गुहार।।
राहुल द्विवेदी ‘स्मित’