*भारत-विभाजन की त्रासदी【कहानी】*
भारत-विभाजन की त्रासदी【कहानी】
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प्रकाशक ने मुझे भारत-विभाजन के विषय को लेकर एक उपन्यास लिखने के लिए कहा था । विषय मुझे अच्छा लगा । अब जब प्रकाशक स्वयं प्रस्ताव लेकर आया है तब लेखक को भला क्या आपत्ति हो सकती है ? मैंने तुरंत हामी भर ली । उपन्यास न सिर्फ मुफ्त छपेगा बल्कि एक अच्छी-खासी रकम भी पारिश्रमिक के तौर पर ही मिलेगी । कुल मिलाकर मेरे लिए प्रस्ताव बहुत आकर्षक था ।
लेकिन उपन्यास का लिखना और प्रकाशित होना सब कुछ मेरे ऊपर नहीं था। प्रकाशक मुझसे उपन्यास लिखवाने की शुरुआत से पहले यह सुनिश्चित होना चाहता था कि मेरा उपन्यास बाजार में टिकेगा या नहीं ?
“देखो भाई ! हम बाजार में वस्तु बेचते हैं और बाजार का नियम यही है कि जिस चीज के खरीदार होते हैं ,उसे ही बेचना फायदे का सौदा होता है ।”-जब प्रकाशक ने बातचीत की शुरुआत में ही यह शब्द कहे तो मेरा माथा ठनका । मैं समझ गया कि प्रकाशक अपनी मर्जी से मुझसे कुछ लिखवाना चाहता है । लेकिन फिर भी मुझे कोई एतराज नहीं था । आखिर भारत विभाजन की त्रासदी के विषय में लिखना तो पहले से ही तय था । इसमें भला और क्या लिखा जाएगा ? फिर भी मैं प्रकाशक की बेचने और खरीदने की बात को समझ लेना चाहता था ।
“आप बताइए ,उपन्यास को बेचने के लिए मुझे इसमें क्या करना होगा ?”
लेकिन प्रकाशक कच्ची गोलियाँ नहीं खेला था । उसने मुझसे पूछा ” जब मैंने आपको विषय भारत विभाजन की त्रासदी दिया है तो मोटे तौर पर एक रूपरेखा तो आपको ही प्रस्तुत करनी चाहिए ताकि हम विचार विमर्श के लिए कहीं से शुरुआत कर सकें ।”
“जी ,आपने बिल्कुल सही फरमाया। भारत विभाजन की त्रासदी एक हिंदू परिवार से शुरू होगी जो अविभाजित भारत के पाकिस्तान क्षेत्र में शताब्दियों से सुखमय जीवन व्यतीत कर रहा है । उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसे पाकिस्तान से भागना पड़ेगा अर्थात देश का बँटवारा हो जाएगा और मुसलमान लोग पाकिस्तान में विभाजन के बाद उसका जीना दूभर कर देंगे।”
अब प्रकाशक बड़ी जोर से चिल्लाया “इसमें कोई दम नहीं है । हम किसी दूसरे एंगिल से इस समस्या को समझें और इसमें कुछ चटपटा-पन लाने का प्रयास करें ।”
चटपटा-पन शब्द सुनकर न जाने कहाँ से मुझ में हिम्मत आ गई और मैं प्रकाशक से पूछ बैठा “हम नाश्ते में भेलपुरी बनाकर थोड़े ही खा रहे हैं जो चटपटा-पन लाएँगे । हम जीवन के अस्तित्व को दाँव पर लगाने वाले लाखों-करोड़ों लोगों के संकट पर उपन्यास के माध्यम से चर्चा करने के लिए बैठे हैं ।”
प्रकाशक ने मुझसे कहा “ठंडे दिमाग से सोचो । उत्तेजित मत हो । तुम्हें एक विश्व स्तरीय उपन्यास लिखना है । हम किसी गाँव या कस्बे में सीमित हो जाने वाले उपन्यास के बारे में बात नहीं कर रहे हैं ।”
” मगर सर ! यह तो सोचिए कि जब हम भारत-विभाजन की त्रासदी पर उपन्यास लिखेंगे तो शांत कैसे रह सकते हैं ? यह आँसुओं से भरा हुआ इतिहास है ,जो धर्म की आड़ में खेला गया था ।”
पहले से भी ज्यादा शांत मनःस्थिति को दर्शाते हुए प्रकाशक ने कहा “गुस्से में कोई चीज नहीं लिखी जाती । ”
मैंने प्रकाशक से असहमति जताई “जब तक लेखक के रोम-रोम से ज्वाला उत्पन्न नहीं होगी, वह राष्ट्रीय-क्रोध की अभिव्यक्ति कैसे कर पाएगा ? ”
“यहीं पर तुम गलती कर रहे हो । इसमें राष्ट्रीय-क्रोध जैसी कोई चीज नहीं है। चीजों को सहजता के साथ लो ।इसीलिए मैंने चटपटे-पन की बात कही थी ,जिसे तुम नहीं समझ पाए । चटपटे-पन से मेरा आशय है कि केवल समस्याओं पर अपने आप को केंद्रित मत करो । आज की दुनिया पर निगाह डालो ! लोग कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं । जीवनशैली बदल गई है । खुलेपन का माहौल चल रहा है । अब हिंदू
-मुस्लिम वाली बातें भी पीछे छूट गई हैं। तुम्हें भारत-विभाजन में धार्मिक पहलू को केवल टच करते हुए आगे बढ़ना है ।”
“अगर धार्मिक पहलू को केवल टच करके आगे बढ़ना है तो इसका मतलब तो यह होगा कि हम मूल विषय से अपने आप को अलग कर लेंगे ?”
“बिल्कुल यही बात मैं कहना चाहता हूँ। “-प्रकाशक ने उत्साह से भर कर मुझे समझाने की कोशिश की ।
“तुम हिंदू – पीड़ा के प्रश्न पर मत अटको । उसे छुओ और आगे बढ़ जाओ । स्त्री – स्वतंत्रता , पतियों से आजादी बल्कि लिव इन रिलेशनशिप की स्वतंत्रता ,हिंदू-मुस्लिम विवाह ,हिंदू-मुस्लिम एकता आदि के दृष्टिकोण से चीजों का विश्लेषण करो । अंत में एक ऐसा निष्कर्ष निकल कर आना चाहिए कि पाठक बिना किसी पीड़ा के प्रसन्न-चित्त होकर उपन्यास के अंतिम वाक्य को पढ़ें और अपने दिन – प्रतिदिन के कार्यों में जुट जाएँ।”
” लेकिन यह तो उपन्यास की विषय-वस्तु के साथ अन्याय होगा । यह लाखों-करोड़ों हिंदुओं के साथ किए गए अमानवीय व्यवहार से आँखें मूँद लेना जैसा हो जाएगा। फिर हमारे लेखन का अर्थ ही क्या रहेगा ?”
प्रकाशक आग – बबूला हो गया । “देखिए भाई साहब ! मैं समझता था कि आप एक समझदार लेखक हैं और मेरा इशारा समझ कर मेरे हिसाब से बढ़िया – सा उपन्यास तैयार कर देंगे । बिक्री होती तो आपको भी फायदा होता और मुझे भी फायदा होता । लेकिन आप तो जैसे घिसे-पटे रवैये से लेखन को चालू ढर्रे पर डालकर लिखने के आदी दिख रहे हैं । मुझे उम्मीद नहीं है कि आप राष्ट्रवाद की सीमाओं से निकलकर एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का उपन्यास लिख पाएँगे ! खैर कोई बात नहीं । मैं किसी और से यह काम करा लूँगा ।” -कहकर प्रकाशक ने मुझसे नमस्ते किए बिना ही एक तरह से मुझे अपना दफ्तर छोड़ने के लिए कह दिया।
इस तरह उपन्यास का ऑफर जिंदगी में पहली बार एक बड़े प्रकाशक से मिला था । वह भी हाथ से निकल गया ।
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा ,रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451