भारत भविष्य
है जा कहाँ रहा ये भारत भविष्य,
अध्ययन से ही विमुख हो रहे शिष्य।
है न परिष्कृत जीवन की चिंता,
है न किसी भांति लज्जा की चिंता।
स्वच्छंद उदंडता की एक मनोभाव,
समझा है यही उसकी पराकाष्ठ छाव।
यहाँ इने गुने कुछ अभिभावक चार,
जिनके हाथों हो रहे बच्चे बीमार।
उनके अनमोल कथन कुछ होते ऐसे,
हम, देते अपने बच्चों के शिक्षण पैसे।
मेरे पैसों पर ही है संस्था पले,
अपराधी भी तनय मेरे ही हैं भले?
निजी संस्था को है बस पैसों से काम,
विघटित हो रहे समाज के बच्चे अविराम।
और अद्वितीय हैं विद्यालय सरकारी,
जहाँ मिले बस दाल-भात-तरकारी
। सरकारों का है राजनीतिक हथकंडा,
किसी कारण भी चले न बच्चों पर डंडा।
न हीं है करने का अधिकार अनुतीर्ण,
हों भले बच्चे बौधिक क्षमता के जीर्ण,
अब बच्चों में न होता असफलता का भय,
न ही रह गया पढने का कोई ध्येय।
शिक्षक पर चला अंकुश पर अंकुश,
बच्चे हो चले निर्विघ्नं निरंकुश।
था कभी 45 प्रतिशत का अपना महत्व,
आज 90 प्रतिशत में भी है न कोई सत्व।
है और कई इस के अवगुण,
एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी सुन।
शिक्षक को मिला स्टाफ का छाप,
उड़ गई उनकी सारी प्रसिद्धियाॅं बन कर भाफ।
अब शिक्षक से डरता कौन,
हुआ जब गुरु प्रति सम्मान मौन।
धन दुर्दांत के शिक्षक शिकार,
क्षीण हो रहा सारा अधिकार,
गुरु जी रह गए बस दोहण यंत्र,
थे कभी जो समस्त सृष्टि ज्ञान के तंत्र।
शिक्षालय से शिक्षा हो रही अदृश्य,
अध्ययन से ही विमुख हो रहे शिष्य।
क्रमशः
उमा झा