‘ भारत का स्वरूप ‘
“राष्ट्र विकसित हो रहा है,मन तरंगित हो रहा है,
पुतले बने सब चुप खड़े ,इंसान धरा पर खो रहा है,
सुरक्षा नही देता कोई रक्षक ही भक्षक हो रहा है,
माली जला बैठा बाग को,मांझी नाव खुद डुबो रहा है,
रिश्ते रहे बस नाम के,हृदय से भाव धूमिल हो गये,
अपनों से भी रिश्ते निभाना, आज बोझिल हो रहा है,
दौलत, शोहरत की चाह में,कामयाबी की राह में,
सब कुछ भूला के भागता,इंसान गुम सा हो रहा है,
पाप लाखों अपने गंगा नहाकर धो रहा है,
खुद आम पाने की ताक में बैठा ,
औरों की खातिर वो,
बबूल जग में बो रहा है,
स्वप्न में हमको लगा भारत यह सुंदर हो रहा है,
नींद खुलते ही समझ गये, खाक कुंदन हो रहा है “