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7 Jan 2024 · 3 min read

भारत का लाल

शत शत प्रणाम हैं उन वीरों को, जिन्होंने सबकुछ अपना वार दिया
देकर बलिदान अपने प्राणो का, हमें विजय दिवस का उपहार दिया

सुबह सौम्य थी शांत दोपहरी शाम भी सुहानी थी
रात के सन्नाटे में पवन की बहती खूब रवानी थी
मौसम बदला, ओले बरसे बर्फ की चादर फ़ैल गयी
चिंताओं की कुछ रेखाएं चेहरे पर वो छोड़ गयी

पिछले कुछ समय से मौसम का, अपना अज़ब रोबाब था
कभी बर्फ हुए कभी फव्वारे, क़हर बे हिसाब था
दो हप्तों से ऊपरी टुकड़ी से कुछ बात न हो पाई थी
दो दिन पहले शायद उनकी अंतिम चिट्ठी आई थी

बाकी ठीक था वैसे तो पर कुछ शब्द ही भारी थे
“बन्दर ,चोटी, छत” और शायद एक शब्द “तैयारी” थे
लिखने वाले ने इन शब्दों को बार बार दोहराया था
शायद उसने हमको अपने इशारो में कुछ समझाया था

चिट्ठी मिलते ही अफसर ने सारा काम छोड़ दिया
शब्दों के मायने ढूढ़ने में सारा अपना ज़ोर दिया
इतने ठण्ड में चोटी पर तो हाँर मांस जम जाते हैं
कैसे बन्दर है जो ऊपर मस्ती करने आते हैं?

क्या है राज़ चोटी पर और काहे की तैयारी है?
पूरी बात समझने की इस बार हमारी पारी है?
पांच बार पढ़ा चिट्ठी को हर शब्दों पर गौर किया
सोच समझ कर उसने फिर कुछ करने का ठौर लिया

चूक हुई है बहुत बड़ी उसने अब ये जाना था
लिखने वाले ने शायद दुश्मन को पहचाना था
जिस चौकी पर फौजी अपनी जान लुटाए रहता था
आज कोई शत्रु उसपर ही घात लगाए बैठा था

खुद को अब तैयार करने को , इतना सा खत ही काफी था
दुश्मन को औकात दिखाने को अब हर एक फौजी राज़ी था
जागो देश के वीर सपूतो भारत माँ ने आह्वान किया
एक बार फिर दुश्मन ने देश का है अपमान किया

लहू अब अंगार बनकर रग रग में है दौड़ रही
शत्रु को न टिकने देंगे अब हर सांसे बोल रही
हम नहीं चाहते युद्ध कभी पर जो हमपे थोपा जाएगा
कसम है हमे मातृभूमि की वो अपनी मुँह की खाएगा

थाम बन्दुक चल पड़ा फौजी ऊँची नीची पहाड़ो पर
टूट पड़ने को आतुर था वो दुश्मन के हथियारों पर
राह कठिन थी सीमा तक की बर्फ की चादर फैली थी
कहीं-कहीं पर चट्टानों की ऊँची ऊँची रैली थी

एक बार चला जो फौजी फिर रुकना न हो पाएगा
चाहे राह कितने कठिन हो लेकिन मंज़िल को तो पाएगा
ऊपर बैठे ना सोचे दुशमन डरने की कोई बात नहीं
रोक सके जो भारत की सेना ऐसी चट्टानों की औकात नहीं

जा पहुंचा वो चौकी तक और ज़ोरों से ललकार दिया
समय शेष है लौट जा कायर दरवाज़ा मैंने खोल दिया
जो ना लौटा अब भी तू, तो यही पर मारा जाएगा
देश की मिट्टी पास न होगी, यहीं दफनाया जाएगा

तभी एक सनसनाती गोली कान के पास से गुज़र गयी
एक बार तो उसकी भी सांसे बिलकुल जैसे सिहर गयी
सोचा था के दुश्मन को वो बातों से समझा देगा
पर ये था एक ढीठ आतंकी हर बात पर ये देगा

इस बार देश का फौजी बन्दुक ताने खड़ा हुआ
दुश्मन को धुला चटाने की ज़िद पर हो अड़ा हुआ
पच्चीसों को मारा उसने कइयों का संहार किया
एक एक को चुन चुन कर दुश्मन पर प्रहार किया

देख उसका रौद्र रूप यूं शत्रु भय के काँप गए
कुछ लड़े, जा छुपे कुछ और कुछ पीठ दिखा कर भाग गए
एक बार फिर वो लौटे धोखे से फिर वार किया
पीछे से फिर सीना उसका भाले से आर पार किया

समझ गया वो मरना ही है तो फिर अब घबराना क्या?
कम से कम इन दस को मारूं यूँ मुफ्त में जान गवाना क्या?
तीन के उसने गर्दन काटे तीन को बिच से चिर दिया
तीन के सीने छेद कर दिए भुजाओं से अपने पीस दिया

लरखराते कदमो से फिर चौकी तक वो जाता है
कांपते हुए अपने हाँथो से तिरंगे को फहराता है
मरते हुए बोल थे उसके एक बार फिर आऊँगा
जो भी कर्म अधूरे रह गए अगले बार कर जाऊंगा

देश पर मिटने वाला हर फौजी हिम्मत वाला है
धन्य है वो जननी जिसने ऐसे लाल को पाला है

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