भारतीय शास्त्रीय संगीत जुगलबंदी
भारतीय शास्त्रीय संगीत जुगलबंदी
यह दुर्गापुर 1965 में दुर्गा पूजा का समय था, जहाँ मैं काम कर रहा था, आगरा में घर नहीं गया, क्योंकि पूजा मनाने का कोई मूड नहीं था क्योंकि मेरे पिता का पाकिस्तान में पता नहीं चल रहा था कहां औऱ कैसे हैं , हम केवल यह जानते थे कि उन्हें एक हिंदू होने के कारण गिरफ्तार किया गया था और युद्ध बंदी (POW) के रूप में रखा गया है।
मेरी बहन और जीजा दुर्गापुर में थे। कई कलाकारों को आमंत्रित किया गया था, पूजा उत्सव पर प्रदर्शन करने के लिये ।
लेकिन अष्टमी खास थी। इसलिए
मेरे जीजाजी के बंगले में शीर्ष पांच कलाकारों के ठहरने की व्यवस्था की गई थी।
वे अपने प्रदर्शन से एक दिन पहले पहुंचे। ड्राइंग रूम बड़ा था, इन कलाकारों के उपकरण एक तरफ ठीक से रखे हुए थे, और सभी कलाकार बैठे जीजाजी और दीदी के साथ छोटी-छोटी बातचीत चल रही थी, और मुझे साला होने के नाते कहा गया था कि उन्हें यत्न सहित खान पान की देख भाल करू। दीदी ने जो कुछ भी आवश्यक था वह पहले ही कर दिया था।
जल्द ही नाश्ता और पेय परोसा गया,
क्षमा मैं तो आर्टिस्ट्स के नाम से परिचय करना भूल ही गया.
वें थे :
उस्ताद अली अकबर खान-सरोद,
पंडित रविशंकर- सितार,
उस्ताद अल्लाह रक्खा-तबला,
श्रीमती शिशिर कोना धर-राय-चौधरी- वायलिन,
पंडित कृष्ण शंकर – गायक।
सबसे छोटा होने के नाते वे सभी मुझे मास्टर कहते थे जैसा कि जीजाजी ने परिचय कराया था। इन उच्च कलाकारों की वजह से जीजाजी का घर “प्रवेश निषेध स्थान” बन गया था और उनकी मौजूदगी को गुप्त रखा गया था।
वार्तालाब चल रहे थे, और उस्ताद अल्लाह रक्खा थे जिन्होंने धीमी आवाज़ में “तबला के बोले” के साथ सोफे पर अपनी उंगलियों से ताल लगाना शुरू कर दिया, दूसरों ने दोस्ताना टिप्पणी की, “रखा निजेर हाथ धोरे रखते पारे ना।”
(यह बंगाली में है; इसका अर्थ है कि राखा अपने हाथ स्थिर नहीं रख सकता )।
खैर जल्द ही अल्लाह रक्खा उठे और अपने तबले उठाये, कालीन पर बैठ गये औऱ तबला धुन में लग गये और किसी को भी शामिल होने की चुनौती दें दी !
बस सब एक एक कर अपनी अपनी वाद्य ले कर जुगलबंदी शुरू कर दी. इन सभी कलाकारों की असीमित प्रवीणता एवं वाद्य नियंत्रित कला का उत्कृष्ट संगीत असाधारण वैभव एक स्वर्गीय अविश्वसनीय तथा समृद्ध आवाज वाले गायक कृष्णा शंकर के साथ अन्य वाद्ययंत्र के साथ तालमेल और तादात्म्य ( सिंक्रनाइज़ेशन )के साथ अपने अपने वाद्य उपकरण को प्रेरित कर, एक अद्धभुत एवं अविस्वाशनीय संगीत परिल्कपित कर रहें थे।
कलाकार अपने उच्चतम रूप में एक दूसरे के साथ बंदिश में थे एवं समय, काल, स्तान से मुक्त हों कर आलोकिक अनुभूती में खो गये थे ।
हम, मैं, जीजाजी और दीदी दिव्य रमणीय आनंद के चिरस्थायी प्रदर्शन में भिगते हुए मंत्रमुग्ध हो स्थब्ध हों गये थे ।
यह भोर 3.30 बजे तक चला। थके पर सारे कलाकारों के चेहरे दिव्य प्रकाश से लिप्त थे, आत्मा संतुष्टि से भरपूर्ण.
मैं शुभप्रातः कहने ही वाला था, दीदी मेरे पास आईं और फुसफुसाए, ‘क्या आपने रेडियोग्राम में टेप ऑन किया था। मैं चौंक गया क्योंकि उनका लहजा भरी आरोप लगाने वाली थी ; मैंने कहा नहीं”।
बस वह मेरे पर फूट पडी ।
मैंने कहा, “आप रेडियोग्राम के पास बैठे थे”।
जीजाजी ने शीघ्रता से युद्ध में हस्तक्षेप कर शांत किया।
खैर हमे ऐसी पंच जुगलबंदी जीवन में फिर कभी नहीं सुनेंगे! ?
संगीत की ध्वनि की स्मृति; हमारे मन और आत्मा में गूंजता है। वे अपने पेशे के प्रतिभाशाली उस्ताद एवं पंडित थे।