भारतीय नारियों की प्रेरणास्रोत: सीताजी
वर्तमान समय में हमारे देश में पुरुषों व महिलाओं दोनों ने समान रूप से विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति के अनेक स्तंभ स्थापित किए हैं, इस प्रगति के आगे हमें दुनियां के शक्तिशाली राष्ट्र भी सम्मान की दृष्टि से देखने लगे हैं आर्थिक रूप से हम सम्पन्नता की ओर बढ़ चले हैं, राजनैतिक रूप से हम सशक्त हो गए हैं परंतु हम अपनी परंपराओं, संस्कारों अपने आदर्शवाद और अपने आत्माभिमान के साथ समझौता करने लगे हैं हम अपनी धरोहरों, अपने साहित्य से जी चुराने लगे हैं जिन चीजों की वजह से प्राचीनकाल में भारतवर्ष को लोग जाना करते थे वे चीजें हम अपने मानसिक पटेल से भुलाते जा रहे हैं हमारे देश की प्रगति में नारियों का योगदान अविस्मरणीय है अपाला, घोषा सावित्री दुर्गा चेन्नम्मा और सीता जैसी नारियां इस भारत भूमि पर पैदा हुईं जिनकी क्रांतिकारी ऊर्जा ने इस देश की संस्कृति को सदा पुष्पित और पल्लवित किया है इन्हीं में त्रेता युग में सौभाग्य की देवी लक्ष्मी का अवतार मिथिला राज्य के यशस्वी नरेश जनक की पुत्री के रूप में जानी जाने वाली सीता जी के चरित्र के बारे में जानना अत्यंत आवश्यक है जो हमारे देश की नारियों के साथ साथ समस्त जीवों के लिए प्रेरणास्रोत हैं
कहा जाता है कि एक बार मिथिला नगरी में भयंकर सूखा पड़ा ठाव राजा जनक अत्यंत चिंतित हुए, प्रजा की परेशानी दूर करने के लिए उन्होंने हर संभव प्रयास किए परंतु प्राकृतिक शक्तियों से लड़ना उनके वश में न था , किसी ऋषि के कहने पर कि ‘ जब राजा हल चलाएंगे तो वर्षा अवश्य होगी’ , राजा जनक जी ने खेत में हल चलाया हल चलाते समय हल का फल जमीन में गढ़े एक घड़े से टकराया, जब राजा ने उस घड़े को जमीन से निकलवाया तो उसके अंदर एक दिव्यस्वरूपा कन्या मिली, जो बड़ी होकर जानकी और सीता के नाम से विख्यात हुई , सीता जी का पालन पोषण राजा जनक एवं उनकी धर्मपत्नी रानी सुनयना ने अपनी पुत्री की ही भांति किया
सीता जी बचपन से ही अन्य बालकों की तुलना में विलक्षण प्रतिभा की धनी थीं कहा जाता है कि भगवान शिव का दिया हुआ धनुष महर्षि परशुराम जी ने राजा जनक जी के पूर्वजों को दिया था इसी धनुष से महर्षि परशुराम जी ने बहुत बार धरती को क्षत्रियों से विहीन कर दिया था, यह धनुष साधारण व्यक्ति उठाना तो दूर की बात, उसे हिला भी नहीं पाते थे सीता जी ने बाल्यावस्था में ही उस धनुष को उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर रख दिया था
सीता जी की ऐसी प्रतिभा देखकर राजा जनक ने प्रण किया था ‘जो भी पुरुष इस धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ाएगा सीता का विवाह उसी के साथ किया जाएगा’
भगवान राम और सीता जी का प्रथम साक्षात्कार राजा जनकक के पुष्पों से सुसज्जित बाग में हुआ था जहां माता सुनायना ने सीता जी को सखियों के साथ देवी पार्वती की पूजा अर्चना हेतु पुष्प लाने हेतु भेजा था, वहीं दूसरी ओर भगवान राम और उनके भ्राता लक्ष्मण भी जनकपुर के पुष्पों से सुसज्जित बाग की शोभा देखने निकले थे, बाग में सीताजी की सखियों ने श्री राम और लक्ष्मण को देखा ,तो उनके रूप सौंदर्य की प्रसंशा सीताजी के सम्मुख कही, भगवान राम के सौंदर्य का बखान सुनकर सीताजी के मन में जिज्ञासा हुई, उधर श्रीराम ने भी बाग में पेड़ों की आड़ में सीताजी के कंगन , करधनी और पायजेब की आवाज सुनकर कहा ‘ मानो कामदेव ने विश्व को जीतने का संकल्प करके डंके पर चोट मारी है ‘ सीताजी के मुख रूपी चंद्रमा को देखने को श्रीराम के नेत्र चकोर बन गए
महाकवि तुलसीदास जी ने श्रीराम चरितमानस में सीताजी और श्रीराम के विषय मे लिखा है–
‘देखि सीय शोभा सुखु पावा
हृदयं सराहत बचनु न आवा’
नेत्रों के रास्ते श्रीराम को हृदय में लाकर सीताजी ने पलकों के किवाड़ लगा लिए, अर्थात आंखें बंद कर ध्यानमग्न हो गईं सीता जी का प्रेम भी अनूठा है, वे श्रीराम के प्रति आकर्षित भी होती हैं परंतु खुले नेत्रों से , उन्हें अपने पिता की मान मर्यादाएं भी ज्ञात हैं , सीताजी जब श्रीराम को देखकर प्रेम के वश होने लगीं तो उन्हें पिता श्री जनक जी की प्रतिज्ञा (प्रण) याद आ गई, प्रेम रूपी पुष्प सीताजी के ह्रदय में भी खिला परंतु उसकी सुगंध अपने अंदर ही महसूस की, बाहर नहीं आने दिया, सीताजी का चरित्र स्त्रीजाति के लिए बेहद प्रेरणाप्रद है उन्हें समाज से बगावत करने की जरूरत नहीं महसूस हुई अपने प्रेम के लिए, उन्होंने आराधना की देवी पार्वती की, और पार्वती जी को विवश होकर श्रीराम से विवाह का वर भी देना पड़ा
जब सीताजी का स्वयंवर रचा गया तब भी सीताजी के शरीर मे संकोच है , मन में परम उत्साह भी है उनका यह गुप्त प्रेम किसी को जान नही पड़ रहा है सीताजी श्रीराम को देखकर वरमाला डालना भूल जाती हैं सखियां ही उन्हें याद दिलाती हैं , बुद्धि बहुत छोटी होती है, मनोहरता बहुत बड़ी विवाहोपरांत जब श्रीराम को चौदह वर्ष के वनवास को जाना था तो उनकी सास कौशल्या ने अनेक राजशी प्रलोभन और जंगल के भयानक भय दिखाए परंतु सीताजी ने अपने पति के साथ हर मुश्किल में साथ निभाने का निश्चय किया था कौशल्या ने कहा ‘वन में भीषण सर्प , भयानक पक्षी, राक्षसों के झुंड और रास्तों में कंकड़ हैं, कैसे रह पाओगी तुम तुम सीता? वहाँ जमीन पर सोना पड़ेगा , छाल के ही वस्त्र पहनने को मिलेंगे भोजन में कंदमूल और पहाड़ों का पानी, कैसे काटोगी ये कठिन समय?’
सीताजी सास के पैर छूकर हाथ जोड़कर कहने लगीं ‘ हे देवि ! मेरी इस बड़ी भारी ढिठाई को क्षमा कीजिए मैने मन में समझ कर देख लिया कि पति के वियोग के समान जगत में कोई दुख नहीं है’ ‘हे माता! सुनिए! मैं बड़ी ही अभागिन हूँ आपकी सेवा के समय दैव ने श्रीराम को वनवास दे दिया , मेरा मनोरथ सफल न किया आप क्षोभ का त्याग कर दें, परन्तु कृपा न छोड़िएगा कर्म की गति कठिन है मुझे भी कुछ दोष नहीं है’
श्रीराम ने भी सीताजी से सास ससुर के साथ अयोध्या में ही रहने को कहा तो सीताजी ने भगवान राम से कहा ‘ हे प्राणनाथ ! आपके बिना स्वर्ग भी मेरे लिए नरक के समान है सारे रिश्ते नाते पति के बिना स्त्री को सूर्य से भी बढ़कर तपाने वाले हैं योग रोग के समान है , गहने भार रूप हैं और ये संसार यम यातना अर्थात नरक पीड़ा के समान है
श्रीराम चरितमानस में एक चौपाई के माध्यम से सीताजी की विवशता का वर्णन महाकवि तुलसीदास जी ने ऐसे किया है
” प्रभु करुनामय परम विवेकी
तनु तजि रहति छांह किमि छेंकी
प्रभा जाई कहँ भानु बिहाई
कहँ चन्द्रिका चंदु तजि जाई”
अर्थात हे प्रभो! आप करुणामय और परम ज्ञानी हैं शरीर को छोड़कर छाया अलग कैसे रह सकती है? सूर्य की प्रभा सूर्य को छोड़कर कहां जा सकती है?
सीताजी के पतिव्रत धर्म के आगे भगवान श्रीराम उन्हें अयोध्या में रोकने में विफल रहे और अन्ततः सीताजी को श्रीराम के साथ वनवास के लिए विदा किया गया वनवास के दौरान अयोध्या नगरी के बाद सरयू नदी को पार करना था, उस समय लकड़ी की नाव केवट चलाते थे, नाव से सरयू नदी पार कराते थे, बदले में कुछ मुद्रा या धन लिया जाता था, श्रीराम को भी वन जाने के लिए सरयू नदी पार करनी थी , केवट ने श्रीराम के चरण धोकर अपनी नौका में स्थान दिया और उस पर उतारा, किन्तु श्रीराम के पास उतराई देने को कुछ था नहीं , सीताजी ने श्रीराम के मन की भाषा को समझ लिया
” पिय हिय सीय की जाननि हारी
मनि मुदरी मन मुदित उतारी”
सीताजी ने अपनी मणि /रत्नजनित अंगूठी उतारकर केवट को देने के लिए श्रीराम को दे दी, जंगल में एकबार जब लक्ष्मण जी भोजन की व्यवस्था में कुटिया से दूर चले गए , केवल श्रीराम और सीताजी ही थे तब भगवान राम ने सीताजी से कहा कि अब आगे का रास्ता अत्यंत संघर्ष का है और कठिन है हमें राक्षसों से लड़ना है अतः आपको अब अग्नि को समर्पित होना होगा तब ही हम अपना लक्ष्य पा सकते हैं
” सुनहु प्रिया व्रत रुचिर सुसीला
मैं कछु करबि ललित नर लीला
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा
जौ लगि करौं निसाचर नासा”
अपने प्राणप्रिय की आज्ञा सुनकर सीताजी ने अपने आप को तुरन्त अग्नि देव को सौंप दिया
पंचवटी से छल कपट द्वारा लंकापति रावण सीताजी को चुरा ले गया और लंका में स्थित अशोकवाटिका में रखा जहां वे अपने पति के अभाव में भी उनकी ही आराधना में लीन रहीं दुष्ट रावण के अनेकों प्रलोभन भी उनको तनिक न डिगा सके, रावण ने सीताजी को अनेक यातनाएं दीं और भय दिखाए पर वे पतिव्रत धर्म से एक पग भी विचलित नहीं हुईं उन्हें श्रीराम के आने का और आकर रावन और उसके सभी सहयोगियों को नेस्तनाबूद कर खुद को ले जाने का पूरा भरोसा था दुष्ट रावण का श्रीराम ने संहार किया और सीताजी के भरोसे की जीत हुई
इस जगत में नारियों के बलिदान की कहानियां हमेशा प्रेरणा का स्रोत रहीं हैं हमारे समाज ने हमेशा नारी को अबला या आश्रित ही माना, जबकि ऐसा नहीं है नारियों ने हमेशा आवश्यकता पड़ने पर अपनी प्रतिभा से समाज में अपनी उपयोगिता सिद्ध भी की है फिर भी युग चाहे द्वापर रहा हो त्रेता हो सतयुग हो या कलि युग नारी को हमेशा अपनी परीक्षा देनी पड़ी है सीताजी को लंका से वापस होकर अयोध्या में अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा, इसके बाबजूद एक धोबी के कहने पर सीताजी को राजमहल का परित्याग कर जंगल में ही रहना पड़ा गर्भावस्था की असहनीय पीड़ा सहते हुए सीताजी ने जो अपने धैर्य और धर्म का परिचय दिया अनुकरण करने योग्य है जिस महिला ने पति के वनवास में कठोर चौदह वर्ष अपने पति की सेवा में बिताए वही सीताजी समाज को अग्निपरीक्षा देने के बाबजूद राजमहल छोड़ने पर मजबूर हुईं विषम परिस्थितियों में माँ के रूप में अपने दोनों पुत्र लव और कुश का यथोचित लालन पालन करने के साथ साथ उन्हें अस्त्र शस्त्र विद्या का ज्ञान भी कराया
बाल्यावस्था में माँ बाप के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए किशोरावस्था में अपने माँ बाप और समाज की परवाह में संयमित जीवन जीकर विवाहोपरांत श्री राम की जीवन संगिनी बनकर उनके सुख दुख में बराबर की भागीदारी करते हुए गृहत्याग होने के बाबजूद अपने पुत्रों के लिए माता और पिता दोनो का स्नेह देते हुए सीताजी ने जीवन जिया , आज के परिपेक्ष्य में आदर्श है, हमारे परिवेश की स्त्रियों के लिए प्रेरणा की स्रोत हैं, अगर आज की स्त्रियां सीताजी के जीवन चरित्र से प्रेरणा लें तो निश्चित ही रामराज्य पुनः स्थापित हो सकेगा इसमें कोई संदेह नहीं है
नरेन्द्र ‘मगन’
कासगंज
9411999468