भाग्य
कभी तो भाग्य अपना भी जगेगा।
तभी सत्कर्म भी सारा फलेगा ।।
किया हमने कभी उपकार जिन पर ।
वही फिर याद सब बनकर जगेगा ।।
नहीं समझा कहा अपना जिसे वह।
बना दुश्मन हमें वह यूँ छलेगा ।।
बहुत से स्वप्न जो मन में दबे हैं ।
वही धर रूप फूलों – सा खिलेगा ।।
बहुत ही पीर इस मन में दबी है ।
नहीं फिर होंठ कब तक ये हिलेगा ।।
लगा ताला यहाँ मुख पर सभी के।
कभी जनमन मुखर को ये खलेगा ।।
चलो अब काम भर दृढ़ता करें हम ।
तभी यह भाग्य सुन्दर-सा जगेगा ।।
वही छवि आज मनहर है लुभाती ।
मुझे वह रूप दर्शन कब मिलेगा।।
डाॅ सरला सिंह “स्निग्धा”
दिल्ली