…………….भागीरथ की मैं गंगा ……………
भागीरथ की मैं गंगा
कहूँ किससे अपनी पीर?
पाप, मनुज तेरे धो -धो
हुआ गंदा मेरा नीर।।
होकर मैली अब गंगा
नैनन से नीर बहाये
हे मानव! तूने मेरे
प्राण संकटों मे लाए।।
चट्टानों से टकरा कर
मैं धरती पर आती हूँ
अपनी अविरल धारा से
तेरे पाप बहाती हूँ।।
नहीं सहा जाता मुझसे
तेरी इस नादानी को
माफ करूँगी मैं कब तक
तेरी इस हैवानी को?
नहीं समझता तू मानव
क्यों माँ को गंदा करता?
बेटे!मेरा रूप धवल
किसलिए तुझको अखरता?
कब तक क्षमा करे माता?
भरे तुझमें कब तक प्राण?
मेरे जल बिन जग सूना
हो जाए प्रकृति निष्प्राण।
है आखिरी चेतावनी
अब भी समय सुधरने का
करले पक्का प्रण मानव!
मुझे साफ तू करने का।
अगर जगत से चली गई
प्यासा तू मर जाएगा
पुरखे तारे,भागीरथ,
तू कैसे तर पाएगा?