भागवत गीता अध्याय 2: सांख्य योग
अध्याय 2: सांख्य योग
श्लोक 1
सञ्जय उवाच:
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥
हिंदी अनुवाद:
संजय ने कहा:
इस प्रकार करुणा से अभिभूत, आँसुओं से भरी आँखों और अत्यंत शोकग्रस्त अर्जुन से मधुसूदन (भगवान कृष्ण) ने ये वचन कहे।
श्लोक 2
श्रीभगवानुवाच:
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥
हिंदी अनुवाद:
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा:
“हे अर्जुन! यह मोहपूर्ण कायरता तुझ पर इस कठिन समय में कहाँ से आ गई? यह न तो आर्यों के योग्य है, न स्वर्ग को प्राप्त कराने वाला है और न ही यश देने वाला है।”
श्लोक 3
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥
हिंदी अनुवाद:
“हे पार्थ! तू कायरता को मत अपनाना, यह तुझे शोभा नहीं देता। हे परंतप! यह तुच्छ हृदय की दुर्बलता त्यागकर खड़ा हो जा।”
श्लोक 4
अर्जुन उवाच:
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥
हिंदी अनुवाद:
अर्जुन ने कहा:
“हे मधुसूदन! हे अरिसूदन! युद्ध में मैं भीष्म और द्रोण जैसे पूजनीय व्यक्तियों पर बाण कैसे चला सकता हूँ?”
श्लोक 5
गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्॥
हिंदी अनुवाद:
“इन महानुभाव गुरुजनों को मारने की बजाय, इस संसार में भीख माँगकर जीवनयापन करना बेहतर है। इन्हें मारकर प्राप्त किए गए धन और भोग तो उनके रक्त से सने होंगे।”
श्लोक 6
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषामः
तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः॥
हिंदी अनुवाद:
“हम नहीं जानते कि हमारे लिए क्या बेहतर है—हम उन्हें जीतें या वे हमें। जिनको मारने के बाद भी हम जीना नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़े हैं।”
श्लोक 7
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥
हिंदी अनुवाद:
“मेरी प्रकृति कायरता से ग्रस्त हो गई है, और मेरा मन धर्म के मामले में भ्रमित हो गया है। मैं आपसे पूछता हूँ कि मेरे लिए क्या श्रेयस्कर है। मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण में आया हूँ। कृपया मुझे उपदेश दें।”
श्लोक 8
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्
यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्॥
हिंदी अनुवाद:
“मैं ऐसा उपाय नहीं देखता जो मेरे इंद्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके, चाहे मुझे बिना शत्रुओं वाला समृद्ध राज्य या देवताओं का अधिपत्य ही क्यों न प्राप्त हो जाए।”
श्लोक 9
सञ्जय उवाच:
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥
हिंदी अनुवाद:
संजय ने कहा:
इस प्रकार, हृषीकेश (कृष्ण) से यह कहकर, “मैं युद्ध नहीं करूँगा,” गुडाकेश (अर्जुन) चुप हो गए।
श्लोक 10
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः॥
हिंदी अनुवाद:
हे भारत (धृतराष्ट्र)! तब हृषीकेश (कृष्ण) ने दोनों सेनाओं के बीच शोकग्रस्त अर्जुन से मुस्कुराते हुए ये वचन कहे।
श्लोक 11
श्रीभगवानुवाच:
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥
हिंदी अनुवाद:
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा:
“तुम ऐसे पर शोक कर रहे हो, जिनके लिए शोक करना उचित नहीं है, और ज्ञानियों जैसा बोल रहे हो। ज्ञानी न जीवितों के लिए शोक करते हैं, न मृतकों के लिए।”
श्लोक 12
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्॥
हिंदी अनुवाद:
“न तो कभी ऐसा समय था जब मैं, तुम, या ये राजा अस्तित्व में नहीं थे, और न ही ऐसा होगा कि हम भविष्य में कभी अस्तित्व में न रहें।”
श्लोक 13
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥
हिंदी अनुवाद:
“जिस प्रकार इस शरीर में आत्मा बाल्यावस्था, यौवन और वृद्धावस्था को प्राप्त करती है, उसी प्रकार वह मृत्यु के बाद दूसरे शरीर को प्राप्त करती है। धीर व्यक्ति इस पर शोक नहीं करते।”
श्लोक 14
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥
हिंदी अनुवाद:
“हे कौन्तेय! इंद्रियों और उनके विषयों का संपर्क सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख उत्पन्न करता है। ये सब क्षणिक और नाशवान हैं, इसलिए हे भारत! इन्हें सहन करो।”
श्लोक 15
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥
हिंदी अनुवाद:
“हे पुरुषों में श्रेष्ठ! जिसे ये सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख व्यथित नहीं करते और जो समभाव रखता है, वही अमरता का पात्र है।”
श्लोक 16
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः॥
हिंदी अनुवाद:
“असत का अस्तित्व नहीं है, और सत का अभाव नहीं है। इस दोनों के स्वरूप को तत्वदर्शी जानते हैं।”
श्लोक 17
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥
हिंदी अनुवाद:
“जो समस्त संसार में व्याप्त है, उसे अविनाशी जानो। इस अविनाशी आत्मा का नाश कोई नहीं कर सकता।”
श्लोक 18
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥
हिंदी अनुवाद:
“इन देहों का अंत निश्चित है, लेकिन इनमें रहने वाली आत्मा नित्य, अविनाशी और असीमित है। इसलिए हे भारत! युद्ध कर।”
श्लोक 19
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥
हिंदी अनुवाद:
“जो इसे मारने वाला मानता है और जो इसे मारा गया समझता है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं। आत्मा न मारती है और न मारी जाती है।”
श्लोक 20
न जायते म्रियते वा कदाचिन्
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
हिंदी अनुवाद:
“आत्मा न कभी जन्म लेती है, न मरती है। यह न तो पहले अस्तित्व में थी, न ही भविष्य में नष्ट होगी। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा नष्ट नहीं होती।”
श्लोक 21
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥
हिंदी अनुवाद:
“हे पार्थ! जो इस आत्मा को अविनाशी, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह किसी को मार सकता है या किसी के द्वारा मारा जा सकता है, यह कैसे संभव है?”
श्लोक 22
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यानि संयाति नवानि देही॥
हिंदी अनुवाद:
“जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीरों को छोड़कर नए शरीर धारण करती है।”
श्लोक 23
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
हिंदी अनुवाद:
“इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गीला नहीं कर सकता, और वायु इसे सुखा नहीं सकती।”
श्लोक 24
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥
हिंदी अनुवाद:
“यह आत्मा न काटी जा सकती है, न जलाई जा सकती है, न गीली की जा सकती है, और न सुखाई जा सकती है। यह नित्य, सर्वव्यापी, स्थिर, अचल और सनातन है।”
श्लोक 25
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥
हिंदी अनुवाद:
“यह आत्मा अव्यक्त, अचिन्त्य और अपरिवर्तनीय है। अतः इसे जानकर, तुझे शोक नहीं करना चाहिए।”
श्लोक 26
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥
हिंदी अनुवाद:
“और यदि तुम इसे नित्य जन्मा हुआ और नित्य मरने वाला मानते हो, तब भी हे महाबाहो! तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।”
श्लोक 27
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥
हिंदी अनुवाद:
“जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित है और जो मरता है, उसका पुनः जन्म निश्चित है। इसलिए अपरिहार्य बातों के लिए शोक करना उचित नहीं है।”
श्लोक 28
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥
हिंदी अनुवाद:
“सभी प्राणी अव्यक्त रूप से उत्पन्न होते हैं, मध्य में व्यक्त (जन्म) होते हैं और फिर अव्यक्त हो जाते हैं। हे भारत! फिर इसमें शोक किस बात का?”
श्लोक 29
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनं
आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति
श्रुत्वाऽप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥
हिंदी अनुवाद:
“कोई इसे आश्चर्य की भाँति देखता है, कोई इसे आश्चर्य की भाँति बताता है, कोई इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है, लेकिन सुनने के बाद भी कोई इसे नहीं समझ पाता।”
श्लोक 30
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥
हिंदी अनुवाद:
“हे भारत! यह आत्मा प्रत्येक प्राणी के शरीर में नित्य अवध्य (अमर) है। इसलिए सभी प्राणियों के लिए तुझे शोक नहीं करना चाहिए।”
श्लोक 31
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाछ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥
हिंदी अनुवाद:
“अपने स्वधर्म को देखते हुए भी तुम्हें संदेह नहीं करना चाहिए, क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर और कोई कल्याणकारी कार्य नहीं है।”
श्लोक 32
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥
हिंदी अनुवाद:
“हे पार्थ! यह यदृच्छा (अपने आप) से प्राप्त हुआ अवसर है, जो स्वर्ग के द्वार को खोलता है। ऐसे धर्मयुक्त युद्ध को पाने वाले क्षत्रिय धन्य हैं।”
श्लोक 33
अथ चेत्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥
हिंदी अनुवाद:
“यदि तुम इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं लड़ोगे, तो अपने धर्म और कीर्ति को त्यागकर पाप को प्राप्त करोगे।”
श्लोक 34
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते॥
हिंदी अनुवाद:
“और लोग तुम्हारी अनंत अपकीर्ति की चर्चा करेंगे। सम्मानित व्यक्ति के लिए अपकीर्ति मृत्यु से भी अधिक पीड़ादायक होती है।”
श्लोक 35
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥
हिंदी अनुवाद:
“महारथी योद्धा यह सोचेंगे कि तुम भय के कारण युद्ध छोड़कर भागे हो। जिनके द्वारा तुम आदरणीय समझे जाते थे, वे अब तुम्हें तुच्छ समझेंगे।”
श्लोक 36
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्॥
हिंदी अनुवाद:
“तुम्हारे शत्रु तुम्हारे सामर्थ्य का तिरस्कार करते हुए बहुत-से अपमानजनक शब्द कहेंगे। इससे बढ़कर दुख क्या हो सकता है?”
श्लोक 37
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥
हिंदी अनुवाद:
“यदि तुम मारे गए, तो स्वर्ग को प्राप्त करोगे, और यदि विजयी हुए, तो पृथ्वी का आनंद भोगोगे। इसलिए, हे कौन्तेय! उठो और युद्ध के लिए संकल्प करो।”
श्लोक 38
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥
हिंदी अनुवाद:
“सुख-दुःख, लाभ-हानि और जीत-हार को समान समझकर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। ऐसा करने से तुम पाप से बच जाओगे।”
श्लोक 39
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥
हिंदी अनुवाद:
“अब तक मैंने तुम्हें सांख्य (ज्ञानयोग) के विषय में बताया है। अब मैं योग (कर्मयोग) के बारे में समझाऊँगा। हे पार्थ! इस बुद्धि से युक्त होकर, तुम कर्मबंधन से मुक्त हो जाओगे।”
श्लोक 40
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥
हिंदी अनुवाद:
“इस योग में न कोई आरंभ का नाश होता है और न ही कोई विपरीत फल होता है। इसका थोड़ा-सा अभ्यास भी बड़े भय (जन्म-मरण के चक्र) से बचा लेता है।”
श्लोक 41
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥
हिंदी अनुवाद:
“हे कुरुनन्दन! इस योग में निष्ठा रखने वालों की बुद्धि एक ही होती है (एकाग्रचित्त होती है), लेकिन जो अव्यवस्थित मन वाले हैं, उनकी बुद्धि असंख्य शाखाओं में बंटी होती है।”
श्लोक 42-43
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥
हिंदी अनुवाद:
“हे पार्थ! अज्ञानी लोग वेदों के पुष्पित (आकर्षक) वचनों में लिप्त रहते हैं, जो केवल स्वर्ग की कामना और जन्म-कर्म के फलों को प्राप्त करने का वर्णन करते हैं। ऐसे लोग भोग और ऐश्वर्य के प्रति आसक्त होते हैं और व्यर्थ क्रियाओं में उलझे रहते हैं।”
श्लोक 44
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥
हिंदी अनुवाद:
“भोग और ऐश्वर्य में आसक्त और इनके कारण भ्रमित चित्त वाले लोगों की बुद्धि समाधि में स्थिर नहीं हो पाती।”
श्लोक 45
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥
हिंदी अनुवाद:
“वेद त्रिगुणों (सत्व, रजस, और तमस) से युक्त विषयों का वर्णन करते हैं। हे अर्जुन! तुम इन त्रिगुणों से परे होकर, द्वंद्वों से मुक्त, सत्त्व में स्थिर, निर्योगक्षेम और आत्मवान बनो।”
श्लोक 46
यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥
हिंदी अनुवाद:
“जैसे एक जल से भरे कुएं से उतना ही लाभ होता है जितना चारों ओर जल से भरे सरोवर से, वैसे ही एक ज्ञानी व्यक्ति के लिए समस्त वेदों का उतना ही महत्व है।”
श्लोक 47
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
हिंदी अनुवाद:
“तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फलों में नहीं। इसलिए तुम कर्मफल के हेतु मत बनो और न ही अकर्मण्यता में आसक्त हो।”
श्लोक 48
योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
हिंदी अनुवाद:
“हे धनंजय! संग (आसक्ति) को त्यागकर, सफलता और असफलता में समान रहकर योगयुक्त होकर कर्म करो। समत्व को ही योग कहा जाता है।”
श्लोक 49
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥
हिंदी अनुवाद:
“हे धनंजय! बुद्धियोग के द्वारा कर्म साधारण कर्मों से बहुत श्रेष्ठ है। अपनी बुद्धि को आश्रय बनाओ, क्योंकि फल की इच्छा करने वाले दुर्बल हैं।”
श्लोक 50
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥
हिंदी अनुवाद:
“बुद्धियुक्त व्यक्ति इस संसार में शुभ और अशुभ कर्मों को त्याग देता है। इसलिए योग में संलग्न हो जाओ, क्योंकि योग ही कर्मों में कुशलता है।”
श्लोक 51
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्॥
हिंदी अनुवाद:
“बुद्धियुक्त व्यक्ति अपने कर्मों के फल को त्यागकर जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाते हैं और उस परम पद को प्राप्त करते हैं, जो समस्त दुखों से परे है।”
श्लोक 52
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥
हिंदी अनुवाद:
“जब तुम्हारी बुद्धि मोह रूपी जल को पार कर लेगी, तब तुम जो कुछ सुना है और जो कुछ सुनना है, उन सबसे परे हो जाओगे।”
श्लोक 53
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥
हिंदी अनुवाद:
“जब तुम्हारी बुद्धि श्रुति (वेद) की परस्पर विरोधी बातों से विचलित हुए बिना अचल हो जाएगी और समाधि में स्थित हो जाएगी, तब तुम योग को प्राप्त करोगे।”
श्लोक 54
अर्जुन उवाच:
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥
हिंदी अनुवाद:
“अर्जुन ने कहा:
हे केशव! स्थितप्रज्ञ व्यक्ति की क्या पहचान है? समाधि में स्थित व्यक्ति कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?”
श्लोक 55
श्रीभगवानुवाच:
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥
हिंदी अनुवाद:
“भगवान ने कहा:
हे पार्थ! जब व्यक्ति अपने मन के सभी कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।”
श्लोक 56
दुःखेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥
हिंदी अनुवाद:
“जो दुखों में व्याकुल नहीं होता, सुखों में आसक्त नहीं होता और राग, भय तथा क्रोध से मुक्त होता है, उसे स्थितधी मुनि कहा जाता है।”
श्लोक 57
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥
हिंदी अनुवाद:
“जो हर परिस्थिति में आसक्ति रहित रहता है, शुभ और अशुभ को प्राप्त करके न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी प्रज्ञा स्थित है।”
श्लोक 58
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥
हिंदी अनुवाद:
“जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को चारों ओर से समेट लेता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति इंद्रियों को उनके विषयों से हटाकर संयमित करता है, उसकी प्रज्ञा स्थिर होती है।”
श्लोक 59
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥
हिंदी अनुवाद:
“विषय निराहार व्यक्ति के लिए बाहर से दूर हो सकते हैं, लेकिन उनका स्वाद बना रहता है। परंतु जब वह परम तत्व का अनुभव करता है, तब यह स्वाद भी समाप्त हो जाता है।”
श्लोक 60
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥
हिंदी अनुवाद:
“हे कौन्तेय! जब एक ज्ञानी व्यक्ति इंद्रियों को वश में करने का प्रयास करता है, तब भी चंचल इंद्रियां उसके मन को बलपूर्वक खींच लेती हैं।”
श्लोक 61
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥
हिंदी अनुवाद:
“उन सभी इंद्रियों को संयमित करके, जो मनुष्य मुझमें ध्यान लगाकर स्थित रहता है, उसकी इंद्रियां वश में होती हैं और उसकी प्रज्ञा स्थिर होती है।”
श्लोक 62
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
हिंदी अनुवाद:
“विषयों का चिंतन करते हुए मनुष्य उनमें आसक्त हो जाता है। आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है, और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है।”
श्लोक 63
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
हिंदी अनुवाद:
“क्रोध से भ्रम उत्पन्न होता है, भ्रम से स्मृति (स्मरण शक्ति) का नाश होता है। स्मृति के नष्ट होने से बुद्धि नष्ट हो जाती है, और बुद्धि नष्ट होने से मनुष्य का पतन हो जाता है।”
श्लोक 64
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥
हिंदी अनुवाद:
“जो मनुष्य राग और द्वेष से रहित होकर आत्मा के वश में रहकर इंद्रियों से विषयों का अनुभव करता है, वह प्रसन्नता (प्रसाद) को प्राप्त करता है।”
श्लोक 65
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥
हिंदी अनुवाद:
“प्रसन्नता से उसके सभी दुख नष्ट हो जाते हैं, और प्रसन्नचित्त व्यक्ति की बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है।”
श्लोक 66
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्॥
हिंदी अनुवाद:
“जिसका मन संयमित नहीं है, उसकी बुद्धि स्थिर नहीं होती। ऐसे मनुष्य में भावना (ध्यान) नहीं होती, और भावनाहीन व्यक्ति में शांति नहीं होती। शांति रहित व्यक्ति को सुख कैसे प्राप्त हो सकता है?”
श्लोक 67
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥
हिंदी अनुवाद:
“चंचल इंद्रियों के पीछे-पीछे चलने वाला मन मनुष्य की प्रज्ञा को वैसे ही हर लेता है, जैसे वायु जल पर तैरती नाव को इधर-उधर बहा ले जाती है।”
श्लोक 68
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥
हिंदी अनुवाद:
“इसलिए, हे महाबाहो! जिसकी इंद्रियां सभी विषयों से सर्वथा नियंत्रित हैं, उसकी प्रज्ञा स्थिर होती है।”
श्लोक 69
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥
हिंदी अनुवाद:
“जो रात्रि (अज्ञान) सभी प्राणियों के लिए है, उसमें संयमी पुरुष जागृत रहता है। और जो जागरण (संसारिक आसक्ति) सभी प्राणियों के लिए है, वह स्थितप्रज्ञ मुनि के लिए रात्रि है।”
श्लोक 70
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥
हिंदी अनुवाद:
“जिस प्रकार नदियां भरकर भी सदा स्थिर समुद्र में समा जाती हैं, उसी प्रकार जो व्यक्ति सभी इच्छाओं को अपने में समाहित कर लेता है, वह शांति प्राप्त करता है, न कि इच्छाओं के पीछे भागने वाला।”
श्लोक 71
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति॥
हिंदी अनुवाद:
“जो मनुष्य सभी कामनाओं को त्यागकर, ममता और अहंकार से रहित होकर निर्लिप्त भाव से विचरण करता है, वह शांति को प्राप्त करता है।”
श्लोक 72
एषा ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥
हिंदी अनुवाद:
“हे पार्थ! यही ब्रह्म की स्थिति है, इसे प्राप्त करने वाला मोहित नहीं होता। और जो इस स्थिति में मृत्यु के समय स्थिर रहता है, वह ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त करता है।”