भवानी प्रसाद मिश्र
नयी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर भवानी प्रसाद मिश्र
साहित्य के क्षेत्र में कविता सबसे प्राचीन एवं लोकप्रिय विधा है, चूँकि इसमें कम शब्दों में बड़ी बात कही जा सकती है। काव्य को अनुशासित रखने हेतु व्याकरण के आचार्यों ने छन्द शास्त्र का विधान किया है; पर छन्द की बजाय भावना को प्रमुख मानने वाले अनेक कवि इस छन्दानुशासन से बाहर जाकर कविताएँ लिखते हैं। इस विधा को ‘नयी कविता’ कहा जाता है।
नयी कविता के क्षेत्र में ‘भवानी भाई’ के नाम से प्रसिद्ध श्री भवानी प्रसाद मिश्र का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उनका जन्म 29 मार्च, 1913 को ग्राम टिकोरेया (होशंगाबाद, मध्य प्रदेश) में हुआ था।
काव्य रचना की ओर उनका रुझान बचपन से था। छात्र जीवन में ही उनकी कविताएं पंडित ईश्वरी प्रसाद वर्मा की पत्रिका ‘हिन्दूपंच’ तथा श्री माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रिका ‘कर्मवीर’ में छपने लगी थीं। 1930 से तो वे स्थानीय मंचों पर काव्य पाठ करने लगे; पर उन्हें प्रसिद्धि और उनकी कविता को धार जबलपुर में आकर मिली।
1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के समय वे पौने तीन साल जेल में रहे। वहां उनका सम्पर्क मध्य प्रदेश के स्वाधीनता सेनानियों से हुआ। जेल से छूटकर 1946 में वे वर्धा के महिलाश्रम में शिक्षक हो गये। इसके बाद कुछ समय उन्होंने दक्षिण में ‘राष्ट्रभाषा प्रचार सभा’ का कार्य किया। फिर वे भाग्यनगर (हैदराबाद) से प्रकाशित प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘कल्पना’ में सम्पादक हो गये। वैचारिक स्वतंत्रता के समर्थक होने के नाते 1975 में लगे आपातकाल का उन्होंने प्रतिदिन तीन कविताएं लिखकर विरोध किया।
काव्य और लेखन में प्रसिद्ध होने के बाद उनका रुझान फिल्म लेखन की ओर हुआ; क्योंकि इससे बहुत जल्दी धन और प्रसिद्धि मिलती है। तीन वर्ष हैदराबाद में रहने के बाद वे मुम्बई और फिर चेन्नई गये, जहाँ उन्होंने फिल्मों में संवाद लेखन का कार्य किया; पर इसमें उन्हें बहुत यश नहीं मिला, अतः वे दिल्ली में आकाशवाणी से जुड़ गये। 1975 से पूर्व हुए आन्दोलन के समय उन्होंने बीमार होते हुए भी जयप्रकाश जी की कई सभाओं में भाग लिया।
दूसरे ‘तार सप्तक’ में प्रकाशित भवानी भाई के काव्य में शब्दों की सरलता और प्रवाह का अद्भुत सामंजस्य मिलता है। उन्होंने कई नये व युवा कवियों को आगे भी बढ़ाया। उनकी एक प्रसिद्ध कविता की पंक्तियाँ हैं –
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।।
नर्मदा, विन्ध्याचल और सतपुड़ा से उन्हें बहुत स्नेह था। इस कारण प्रकृति की छाया उनकी रचनाओं में सर्वत्र दिखायी देती है। उन्होंने 12 काव्य संग्रहों का सृजन किया; जिसमें गीत फरोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएँ, गांधी पंचशती, खुशबू के शिलालेख, परिवर्तन के लिए, त्रिकाल सन्ध्या, अनाम तुम आते हो…आदि प्रमुख हैं। उन्होंने अनेक निबन्ध, संस्मरण तथा बच्चों के लिए तुकों के खेल जैसी पुस्तकें भी लिखीं।
‘बुनी हुई रस्सी’ पर उन्हें 1972 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। उ.प्र. हिन्दी संस्थान तथा मध्य प्रदेश शासन ने भी उन्हें शिखर सम्मानों से विभूषित किया।
पद्मश्री से सम्मानित भवानी भाई की हृदय रोग से पीडि़त होने के बाद भी सक्रियता कम नहीं हुई। कई वर्ष तक वे ‘पेसमेकर’ के सहारे काम चलाते रहे; पर 20 फरवरी, 1985 को अपने गृहनगर नरसिंहपुर में अपने पैतृक घर में ही भीषण हृदयाघात से उनका देहान्त हो गया।
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