भले संसद आरक्षित
दिनांक ४/९/२०२३
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छंद -रोला
अस्त -व्यस्त हैं वस्त्र,व्यथा सबको बतलाती।
हुआ साथ जो संग, बताते वह रो जाती।।
बही अश्रु की धार,जलद जैसे बरसाते।
हुआ वही कुछ साथ,गिद्ध जैसे खा जाते ।।(१)
करुण कथा सुन व्यथित, हुईं सखियां भी सारी।
हुईं द्रवित मन शोक,हुआ उनके अति भारी।।
अगले पल क्या होय, नहीं नारी सॅग निश्चित।
नहीं सुरक्षित आज, भले संसद आरक्षित।।(२)
खुले भेड़िए आज, खोलकर रखते बाहें।
देखि घूमती गाय, उछलते भरकर आहें।।
बदले यदि वह राह, सामने अड़ जाते हैं।
कहै अटल कविराय,खुले में गर्राते हैं।।(३)
जब गुंडे हों चार,दिखे नारी भी अबला।
हुई बहुत मजबूर,वही जो होती सबला।।
कहै अटल कविराय,अजब दिखती मजबूरी।
संस्कार हैं मौन, हुई संस्कृति अधूरी।।(४)
🙏अटल मुरादाबादी ✍️
९६५०२९११०८