भला क्यों?
हो गया है जब बिछुड़ना ही सुनिश्चित,
और थोड़ा वक्त अब माँगूँ भला क्यों ?
प्यास सागर भी बुझा पाया नहीं जब,
ओस की बूँदों से फिर विनती क्या करनी।
मित्रता जब कर ही ली है कंटकों से।
घाव कितने मिल रहे गिनती क्या करनी।।
लूँ मदद मैं इत्र की क्यों? सोचता हूँ।
पुष्प ही जब गंध मुझको दे न पाये।
याचनायें मरहमों से ही करूँ क्यों?
बैद्य ही जब देख मुझको खिलखिलाये।
मुस्कुराती मृत्यु के बदले कहो तुम।
जिंदगी अभिशप्त अब माँगूँ भला क्यों।
क्यों सजाऊँ दर्द की इस देहरी पर,
सोचता हूँ सप्तरंगी अल्पनाएं।
क्यों खँगालूँ शब्दकोशों के भी पन्ने,
क्यों करूँ अब व्यर्थ में ही कल्पनाएं।
दीप कर देगा उजाला मान लूँ क्यों,
सूर्य जब नभ से धुआं बरसा रहा है।
नव्य उपमाएं तलाशूँ पर भला क्यों,
गीत ही जब रुष्ट होकर जा रहा है।।
छांव बरगद की न दे पायी सुकूँ जब,
फिर दुपहरी तप्त अब माँगूँ भला क्यों?
तुच्छ सी इन चंद साँँसों के लिये मैं,
गिड़गिड़ाऊँ है न यह बिल्कुल गवारा।
प्रेम करना धर्म मेरा कर्म मेरा,
किंतु है अधिकार, ठुकराना तुम्हारा।
मैं यही कोशिश करूंगा अंत तक भी,
कत्ल का इल्जाम ये तुम पर न आए।
मैं भले सौ बार मर जाऊँ न गम है,
किंतु तेवर एक कवि का मर न जाए।।
एक दिन मिट्टी में मिलना ही अगर है,
फिर कहो तुम तख्त अब मांगू भला क्यों?
प्रदीप कुमार “दीप”
सुजातपुर, सम्भल (उ०प्र०)