*भला कैसा ये दौर है*
भला कैसा ये दौर है, ये कैसा ज़माना है।
ना कोई अपना ही है, ना कोई बेगाना है।
भले दिल मिलें या दिल में कोई दरार हो,
दस्तूर यही है कि सबसे हाथ मिलाना है।
महफ़िल में मिल रहे हैं, गले सभी लेकिन,
बस फिक्र ये है कि कैसे खंजर छुपाना है।
दिल शीशा है,उस पे दगाबाजी की गर्द है,
इसको इक दिन बिखरना है,टूट जाना है।
तुम ग़म का इज़हार, किसी पेड़ से करना,
वर्ना ये बोझ दिल का,दिल में रह जाना है।
चलो उठो सब,उठाओ हरेक हाथ में पत्थर,
लैला के लिए मजनूं ने शहर छोड़ जाना है।
ना वो सुदामा बना ,ना मैं कृष्ण बन सका,
ज़रूरत का रिश्ता है ,नाम का याराना है।
तुम जितनी जल्दी परख लोगे ठीक रहेगा,
वरना इक अरसे बाद भी तो पछताना है।
सुधीर कुमार
सरहिंद फतेहगढ़ साहिब पंजाब।