भटकाव
निकला था
मंजिल के लिए
दोस्त मिले
और बिछुड़ते गये
आया जब चौराहा
भटकाव आया
जिन्दगी में
बनते थे अपने
गायब हो गये
किधर है मंजिल
नहीं बताया
किसी ने
थे कुछ अंजान
कुछ बन गये अंजान
मेरी असफलता
मेरा भटकाव
मेरे जीवन का
शून्य ही था
उदेश्य उनका
हारी नहीं हिम्मत
एक दिशा में
बढ़ा अंत तलक
फिर दूसरी
फिर तीसरी
मिली आखिर
मंजिल
हुआ मेरा
मकसद पूरा
नहीं है तकलीफ
अब चौराहे से
डर नहीं
है मेरे साथ जज़्बा
फ़तह का
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल