भटकती रात
भटकती रात के सीने पे सर रखकर सारी रात जागूं मैं
एक तेरे सिवा टूटते सीतारे से और क्या ही जाॅं मांगूं मैं
~ सिद्धार्थ
उसने दिल्लगी में भी याद न रखा हमको
मैं तो उंगलीयों पर भी उसे ना समेट सकी
~ सिद्धार्थ
तुम्हें खोजते रहना और खुद को ही खो देना
बस यही इक काम अब रह गया है मेरा कान्हा